सिधु से, बादलों से, अन्तरिक्ष और हिमालय से टहल कर लौट
आने की प्रतीक्षा करूँ? और इतना भी न कहोगी कि कब तक?
बलिहारी!
"कुमारी लज्जा भीरु थी। वह हृदय के स्पन्दनों से अभिभूत हो रही थी। क्षुद्र वीचियों के सदृश कॉपने लगी। वह अपना कलसा भी न भर सकी और चल पड़ी। हृदय में गुदगुदी के धक्के लग रहे थे। उसके भी यौवन-काल के स्वर्गीय दिवस थे---फिसल पड़ी। धृष्ट युवक ने उसे सँभाल कर अंक में ले लिया।
"कुछ दिन स्वर्गीय स्वप्न चला। जलते हुए प्रभात के समान तारादेवी ने वह स्वप्न भंग कर दिया। तारा अधिक रूपशालिनी, काश्मीर की रूप-माधुरी थी। देवपाल को काश्मीर से सहायता की भी आशा थी! हतभागिनी लज्जा नै कुमार सुदान की तपोभूमि में अशोक-निर्मित विहार में शरण ली। वह उपासिका, भिक्षुनी, जो कहो, बन गई।
"गौतम की गम्भीर प्रतिमा के चरण-तल में बैठ कर उसने निश्चय किया, सब दुःख है, सब क्षणिक है, सब अनित्य है।"
"सुवास्तु का पुण्य सलिल उस व्यथित हृदय की मलिनता को धोने लगा। वह एक प्रकार से रोग-मुक्त हो रही थी।"
"एक सुनसान रात्रि थी, स्थविर धर्म-भिक्षु थे नहीं। सहसा
कपाट पर आघात होने लगा और "खोलो! खोलो!" का शब्द
सुनाई पड़ा। विहार में अकेली लज्जा ही थी। साहस करके बोली---
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