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प्रतिध्वनि
 


का पर्व स्नान करनेवालों को कगारे के नीचे देख रही थी। समीप होने पर भी वह मनुष्यों की भीड़ उसे चीटियाँ रेंगती हुई जैसी दिखाई पड़ती थीं। मन्नी ने आते ही उसका हाथ पकड़कर कहा---"चल बेटी हम लोग भी स्नान कर आवें।"

उसने कहा---"नहीं दादी, आज अंग-अंग टूट रहा है जैसे ज्वर आने को है।"

मन्नी चली गई।

तारा स्नान करके दासी के साथ कगारे के ऊपर चढ़ने लगी। श्यामा की बारी के पास से ही पथ था। किसी को वहाँ न देखकर तारा ने संतुष्ट होकर साँस ली। कैरियों से गदराई हुई डाली से उसका सिर लग गया। डाली राह में झुकी पड़ती थी। तारा ने देखा, कोई नहीं है; हाथ बढ़ाकर कुछ कैरियाँ तोड़ लीं।

सहसा किसी ने कहा---"और तोड़ लो मामी, कल तो यह नीलाम ही होगा!"

तारा की अग्नि-बाण-सी आँखें किसी को जला देने के लिये खोजने लगीं। फिर उसके हृदय में वही बहुत दिन की बात प्रतिध्वनित होने लगी---"किसका पाप किसको खा गयी रे!"---तारा चौंक उठी। उसने सोचा रामा की कन्या व्यंग्य कर रही है---भीख लेने के लिये कह रही है। तारा होंठ चबाती हुई चली गई।

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