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देवदासी
 

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१७---३---२५


प्रिय रमेश!

समय को उलाहना देने की प्राचीन प्रथा को मैं अच्छी नहीं समझता। इसलिये जब वह शुष्क मांसपेशी अलग दिखाने-वाला, चौड़ी हड्डियों का अपना शरीर लठिया के बल पर टेकता हुआ, चिदम्बरम् नाम का पण्डा मेरे समीप बैठ कर अपनी भाषा में उपदेश देने लगता है तो मैं घबरा जाता हूँ। वह समय का एक दुर्द्दश्य चित्र खींचकर, अभाव और आपदाओ का उल्लेख करके विभीषिका उत्पन्न करता है। मैं उनसे मुक्त हूँ; भोजन-मात्र के लिये अर्जन करके सन्तुष्ट घूमता हूँ---सोता हूँ! मुझे समय की क्या चिन्ता? पर मैं यह जानता हूँ कि वही मेरा सहायक है---मित्र है। इतनी आत्मीयता दिखलाता है कि मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। अहा, एक बात तो लिखना मैं भूल ही गया था! उसे अवश्य लिखूँगा, क्योकि तुम्हारे सुने बिना मेरा सुख अधूरा रहेगा। मेरे सुख को मैं ही जानूँ, तब उसमें धरा ही क्या है, जब तुम्हें उसकी डाह न हो! तो सुनो---

सभा-मण्डप के शिल्प-रचनापूर्ण स्तम्भ से टिकी हुई एक उज्ज्वल श्यामवर्ण की बालिका को अपनी पतली बाहुलता के

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