सहारे, घुटने को छाती से लगाये प्रायः बैठी हुई देखता हूँ। स्वर्ण-मल्लिका की माला उसके जूड़े से लगी रहती है। प्रायः वह कुसुमा-भरण भूषिता रहती है। उसे देखने का मुझे चस्का लग गया
है। वह मुझसे हिंदी सीखना चाहती है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि
उसे पढ़ाना आरंभ कर दूँ? उसका नाम है पद्मा। चिदम्बरम्
और पद्मा में खूब पटती है। वह हरिनी की तरह झिझकती भी
है। पर न-जाने क्यों मेरे पास आ बैठती है, मेरी पुस्तकें उलट-पलट
देती है। मेरी बातें सुनते-सुनते वह ऐसी हो जाती है, जैसे कोई
अलाप ले रहो हो, और मैं प्रायः आधी बात कहते-कहते रुक
जाता हूँ। इसका अनुभव मुझे तब होता है, जब मेरे दृष्टि-पथ से
वह हट जाती है। उसे देखकर मेरे हृदय में कविता करने की
इच्छा होती है, यह क्यों? मेरे हृदय का सोता हुआ सौंदर्य जाग
उठता है। तुम मुझे नीच समझोगे और कहोगे कि अभागे
अशोक के हृदय की स्पर्द्धा तो देखो! पर मैं सच कहता हूँ, उसे
देखने पर मैं अनन्त ऐश्वर्यशाली हो जाता हूँ।
हाँ, वह मन्दिर में नाचती और गाती है। और भी बहुत-सी हैं, पर मैं कहूँगा, वैसी एक भी नहीं। लोग उसे देवदासी पद्मा कहते हैं, वे अधम है; वह देवशाला पद्मा है!
वहीं,
अशोक
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