सहित विदा करके कोर्दे ने उसी दिन एक पैना छुरा खरीदकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया। उसकी इच्छा मारोत को खुलेआम मारने की थी, परन्तु ऐसा अवसर मिलना कठिन था, अतएव उसने मारोत के स्थान पर ही उसका बध करने का निश्चय किया।
मारोत से भेंट होना बड़ा कठिन था। कोर्दे को एक युक्ति सूझी। कोर्दे जानती थी कि मारोत प्राणपण से प्रजातन्त्र-शासन-विधान की रक्षा करेगा। यदि उससे कहा जाय कि अमुख स्थान पर शासन-विधान के विरुद्ध लोगों ने उपद्रव किया है, तो वह मेरी बात अवश्य सुनेगा। इसी बहाने से कोर्दे ने मारोत से मिलना चाहा। इस आशय की सूचना उसने मारोत के पास भेजी, पर कोई सुनवाई न हुई। दो बार जाने पर भी कोर्दे को लौट आना पड़ा, पर वह हताश न हुई। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि चाहे जैसे हो, तीसरी बार जाने पर अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूँगी।
कोर्दे उसी दिन सन्ध्या-समय तीसरी बार फिर मारोत के मकान पर पहुँची। द्वार-रक्षक के द्वारा अन्दर जाने से रोकने पर वह उससे झगड़ने लगी। द्वार-रक्षक कोर्दे का मार्ग रोकता था और कोर्दै मारोत से मिलने के लिये अपने हठ पर अड़ी हुई थी। इन दोनों के वाक्युद्ध का शोर मकान के अन्दर मारोत के कानों में पड़ा। शब्दों द्वारा उसने इतना जान लिया कि यह वही स्त्री है, जो आज ही मुझसे मिलने के लिए दो पत्र भेज चुकी है। मारोत ने वहीं से कोर्दे को भीतर आने के लिये द्वार-रक्षक को आदेश दिया।
अन्दर जाने पर कोर्ट ने देखा कि मारोत अपने कमरे में उपस्थित है। उसके चारों ओर कागज-पत्र फैले हुये हैं और वह बड़े गौर से उनकी देख-भाल कर रहा है।
कुछ समय तक कोर्दै और मारोत में बातचीत होती रही। उपद्रवियों के नाम एक पर्चे पर लिखने के बाद बड़े निःशंक भाव से मारोत ने कहा-"एक सप्ताह पूर्व ही ये सब मौत के घाट उतार दिये जाएंगे।"
कोर्दे ऐसे शब्द सुनने की प्रतीक्षा में ही थी। मारोत के अभिमान को चूर्ण करने का उसे अवसर मिल गया। उसने बड़ी फुर्ती से अपने वस्त्रों में से छुरा निकाला और मारोत की छाती में पूरे वेग से घोंप दिया। यह सब करने
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