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पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/५२

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इंगलैंड पहुँचते-पहुँचते भारतीय माल में लाभ की सम्भावना नहीं रहती थी।

हेस्टिग्स ने इन सब अव्यवस्थाओं में कड़ाई से सुधार किया। जुलाहों को कम्पनी के कर्मचारियों और दलालों से मुक्त कराया। माल की पूरी चौकसी की व्यवस्था की, जिससे व्यापार में लाभ होने लगा। उनकी कार्य-दक्षता से करनाटक, मैसूर और निकटवर्ती उत्पादन-क्षेत्रों में व्यापार में वृद्धि हुई।

इसी समय बंगाल में भारी दुर्भिक्ष की घड़ी आ उपस्थित हुई। १७६८ में बंगाल में अनावृष्टि के कारण बहुत कम उपज हुई, परन्तु कम्पनी के गुमाश्तों ने किसानों से मालगुजारी बहुत सख्ती से वसूल की। बीज के लिए रखे गए चावलों को भी उनसे वसूल कर लिया गया। अगले वर्ष १७६६ में उपज और भी कम हुई। धान के सब खेत सूखे और बिना उपज के पड़े हुए थे। इस भयानक दुभिक्ष के संकट की घड़ी में भी अंग्रेजों ने किसानों को निचोड़ कर २७९७३०६ पौंड की लगान-राशि अपने देश भेजी जबकि अब से १० वर्ष पूर्व यह राशि केवल १३६५६५६ पौंड थी।

उस समय भी कुछ लोग धनी थे। जगतसेठ, मानिकचन्द नष्ट हो चुके थे-पर कुछ धनी बच रहे थे। पर, क्या किसान, क्या धनी-अन्न बंगाल में किसी के पास न था। अफियाँ थीं-मगर कोई अन्न बेचने वाला न था।

अंग्रेजों ने बहुत-सा चावल कलकत्ते में सेना के लिए भर रखा था। यह सुनकर पूनिया, दीनापुर, बाँकुड़ा, वर्द्धमान आदि चारों ओर से हजारों नर-नारी कलकत्ते को चल दिये। गृहस्थों की कुलकामिनियों ने प्राणाधिक बच्चों को कन्धे पर चढ़ाकर विकट-यात्रा में पैर धरा। जिन कुल-वधुओं को कभी घर की देहली उलाँघने का अवसर नहीं आया था, वे भिखारिन के वेश में कलकत्ते की तरफ जा रही थीं। बहुमूल्य आभूषण और अशर्फियाँ उनके आँचल में बँधे थे, और वे उनके बदले एक मुट्ठी अन्न चाहती थीं।

पर इनमें कितनी कलकत्ते पहुंचीं? सैकड़ों स्त्री-पुरुष मार्ग में ही भूखे-मर गये, कितनों के बच्चे माता का सूखा स्तन चूसते-चूसते अन्त में माता की छाती पर ही ठण्डे हो गये। कितनी कुल-वधुओं ने भूख-प्यास से उन्मत्त

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