सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

और यह कारण बताया कि नवाव की मृत्यु पर बदअमनी का भय है। नवाब बहुत गिड़गिड़ाया, पर अंग्रेजों ने उसे हर समय घेरे रखा और बराबर अपनी मित्रता का विश्वास दिलाते रहे। उस समय नवाब का बेटा शाहजादा अलीहुसैन उसी महल में था। ज्योंही नवाब के प्राण निकले कि शाहजादे को जबरदस्ती महल से बाहर ले जाकर अंग्रेजों ने कहा--"चूंकि तुम्हारे दादा और बाप ने अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त पत्र-व्यवहार किया है, इसलिए गवर्नर-जनरल का यह फैसला है कि तुम बजाय अपने बाप की गद्दी पर बैठने के मामूली रिआया की भाँति जिन्दगी बिताओ और इस सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दो।" जहाँ यह बातें हो रही थीं--वहाँ अंग्रेजी सिपाही नंगी तलवारें लिये फिर रहे थे। परन्तु अलीहुसैन ने मंजूर न किया। तब नवाब के दूर के रिश्तेदार आजमुद्दौला से अंग्रेजों ने बातचीत की। उसने संधि की शर्ते स्वीकार कर लीं। तब उसे मसनद पर बैठा दिया गया। इस सन्धि के अनुसार तमाम करनाटक प्रान्त कम्पनी के हाथ आ गया और आजमुद्दौला केवल राजधानी अरकार और चिपोक के महलों का स्वामी रह गया। नवाब को चिपोक के महल में रखा गया और उसी में शाहजादा अलीहुसैन और उसकी विधवा माँ को कैद कर दिया। कुछ दिन बाद वह वहीं मर गया। सन्देह किया जाता है कि उसे जहर दिया गया।

मुगल-साम्राज्य में सूरत एक सम्पन्न बन्दरगाह और सूबा था। बहुत दिन से वहाँ बादशाह का सूबेदार रहता था। जब साम्राज्य की शक्ति ढीली पड़ी, तब वहाँ का हाकिम स्वतंत्र नवाब बन बैठा। पीछे जब योरोप की जातियों ने भारत में पैर फैलाये और अंग्रेजों की शक्ति बढ़ने लगी, तब सूरत के नवाब से भी अंग्रेजों ने संधि कर ली। धीरे-धीरे नवाब अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली हो गया। चार नवाबों के जमाने में यही होता रहा। वेलेजली ने अपनी नीति के आधार पर नवाब को भी सेना भंग करने और कम्पनी की सेना रखने की सलाह दी। नवाब ने बहुत नाँ-नूं की, मगर अन्त में एक लाख रुपया वार्षिक और ३० हजार रुपये सालाना की और रियायतें करनी ही पड़ी। इसी समय नवाब मर गया। इसके बाद इसका चचा नसिरुद्दीन गद्दी पर बैठा। इसने शीघ्र ही सब दीवानी और फौजदारी अधिकार अंग्रेजों को दे दिये और स्वयं बे-मुल्क नवाब बन बैठा।

६१