आज मालूम हुआ कि तुम उतनी बुरी नहीं हो, जितनी बुरी तुम्हें बतलाया जाता है।"
उपद्रवियों के चले जाने पर रानी राजा के चरणों पर गिर पड़ी और उसके घुटने पकड़कर घण्टों रोती रही।
राजा ने कहा-“आह! मैं तुम्हें यह दिन दिखाने के लिए तुम्हारे देश से क्यों लिवा लाया?"
इस घटना के बाद राष्ट्रीय संरक्षक दल के सेनानायक ने अपनी सहायता से उनको वह स्थान छोड़ने का परामर्श दिया, परन्तु राजा वहाँ से जाने को सहमत न हुआ। उसको विदेशी राष्ट्रों की सेनाओं का भरोसा था। राजा के प्रति जनता की श्रद्धा नित्य कम होती गई। उन्हें यह विश्वास हो गया कि राजा और रानी दोनों देशहित में बाधक हैं।
एक व्यक्ति ने तो परिषद् में कह दिया-"राजभवन ही सब अनर्थों का मूल है। उसका अन्त जल्द होना चाहिए।"
इसी बीच में ब्रन्सविक के ड्यूक ने फ्रांसीसियों को राजा के सम्मुख आत्म-समर्पण करने की धमकी दी। लोग भड़क गए। उन्होंने राजमहल पर आक्रमण कर दिया। राजवंश का जीवन बड़े संकट में था।
विद्रोही चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे—“बढ़े चलो, राजा-रानी और उनके बच्चों का सिर काट कर भालों की नोंक पर लटका दो, राजवंश का एक भी प्राणी जीता न बचने पावे।"
विद्रोहियों ने राजमहल के रक्षकों को मार गिराया। रानी की दशा बड़ी खराब थी। एक ओर उसको पति और बालकों की चिन्ता थी, दूसरी ओर अपनी मृत्यु का भय। परन्तु उस समय भी उसमें कुछ साहस मौजूद था। उसने राजा से कहा-"मरने-मारने का यही अवसर है, तुम्हारे अधिकार में जो थोड़ी-सी सेना है, उसकी सहायता से विद्रोहियों को क्यों नहीं भगा देते?"
परन्तु उस समय ऐसा करना अपनी मृत्यु को समीप बुलाना था। राजा ने रानी की बात पर ध्यान नहीं दिया। उन दोनों ने समीपस्थ, परिषद-भवन में जाकर अपने प्राण बचाए। उसी दिन सम्राट लुई पदच्युत कर दिया गया और राजवंश को पेरिस के टेम्पिल-कारागार में रहने की आज्ञा हुई।
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