पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/९५

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संतुलन के लिए परस्पर में लड़ते रहते थे। अपनी ओर से लड़ाने के लिए वे कुछ अन्य वीर योद्धाओं की भी पारिश्रमिक देकर सहायता प्राप्त करते थे। दाऊदखाँ ने अपने कुछ वीर पठानों का संगठन करके एक योद्धादल बनाकर उन ताल्लुकदारों की आपस की लड़ाई में उनका साथ देकर युद्ध किया, जिससे उसकी वीरता की प्रसिद्धि हुई। वह जिस ताल्लुकेदार की ओर से लड़ता उसी की विजय होती थी। विजय होने पर उसे खूब रुपया मिलता था। एक बार बरेली के पास बाँकौली गाँव में दो जमींदारों में भयंकर लड़ाई हुई। बाँकौली गाँव सैयदों का था। सैयद जमकर लड़े, परन्तु अन्त में सब मारे गए। दाऊदखाँ ने इस लड़ाई में दूसरे जमींदार का पक्ष लेकर युद्ध किया था। लड़ाई जीतकर जब उसने बाँकौली गांव में प्रवेश किया तो उसे एक सूने घर में एक छः वर्ष का सुन्दर और तेजस्वी बालक एक कोने में बैठा हुआ मिला। दाऊदखां ने बालक को अपनी गोद में लेकर पूछा-"क्या तुम अकेले बचे हो?"

"हाँ।"

"तुम्हारा नाम?"

"मोहम्मद अली।

"तुन्हारे वालिद का?"

"दिलदार अली।"

"अब वह कहाँ है?"

"शायद लड़ाई में मारे गए।"

"घर के और लोग?"

"सब भाग गए।"

"क्या तुम मेरे साथ चलोगे?"

बालक ने यह प्रश्न सुनते ही दाऊदखाँ के मुँह की ओर देखा। उस समय उसमें वात्सल्य और प्रेम झलक रहा था। बालक ने कहा-"तुम मुझे मारोगे तो नहीं?"

"नहीं बेटे, मैं तुम्हें अपना बहादुर बेटा बनाऊँगा।"

दाऊदखाँ ने उसे अपने साथ ले लिया और दत्तक पुत्र बनाकर पालन-पोषण किया। उसका नया नाम रखा अली मोहम्मद खाँ। उसके पढ़ने-लिखने

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