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[दूसरा
आदर्श महिला

सत्यवान ने लजाकर कहा---देवी! इस रात में प्यारी की अलसाई हुई आँखों से निकले हुए प्रेम के आँसुओं में नहाने से ही प्रेम-देवता की पूजा होती है। देवी! इसी पूजा से हृदय अघा जाता है, इसलिए देवता की भी तृप्ति होती है। तुम क्या मुझको झूठा पुजारी समझती हो?

सावित्री ने कहा---अजी मेरे हृदय-मन्दिर के पुजारी! अब यह श्लोक पढ़ना बन्द करो। रूप की व्याख्या से स्त्री का आदर नहीं बढ़ता। नारी का रूप शरीर में नहीं है, वह तो हृदय में है। मुझे हृदय के उसी रूप को पहचानना सिखलाइए। हृदय की सुन्दरता तो सिंगार पटार से मैली हो जाती है। फिर इस रूप का उतना मोह क्यों?

सत्यवान ने खुश होकर कहा---"देवी! मैं तुमको क्या सिखाऊँगा? तुम्हीं से मुझको बहुत कुछ सीखना है।" इस पर सावित्री लजा गई।

इतने सुख से रहने पर भी सावित्री का हृदय होनहार के डर से काँप उठता था; उसके सब कामों में वह, वर्षभर के बाद होनेवाली, घटना मानो भयानक दैत्य की तरह आकर हँसी करने लगती। उस फ़िक्र के मारे सावित्री दिन पर दिन दुबली होने लगी। सत्यवान ने और उसकी माता शैव्या ने भली भाँति देखा कि सावित्री की आँखों के कोनों में स्याही छा गई है और उसका सारा शरीर पीला पड़ चला है। बूढ़े राजर्षि द्युमत्सेन ने पत्नी के मुँह से पुत्र-वधू का यह हाल सुनकर एक दिन सावित्री से कहा----"बेटी! मैंने सुना है कि दिन-दिन तुम्हारा शरीर दुबला होता जाता है। तुम न तो उमंग से वैसी हँसती-खेलती ही हो और न मुनियों की कन्याओं के साथ अब वन में घूमती-फिरती हो। बताओ, तुम्हारा चित्त ऐसा क्यों बदल गया है? मैं समझता हूँ कि तुम अपने पिता और माता के बिछोह से दुखी हो। तुम सदा से सुख-विलास में रही हो, अब शायद घोर दीनता में पड़ने से इतना