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आख्यान ]
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सावित्री

राजा द्युमत्सेन को यह सुनकर अचरज हुआ कि सावित्री तीन रात तक व्रत करेगी। उन्होंने सावित्री को बुलाकर कहा---"बहू! तीन रात का व्रत बड़ा कठिन है। तुम इस संकल्प को छोड़ दो।" सावित्री ने कहा---पिताजी! जो आप लोगों के चरणों में मेरी अचल भक्ति होगी तो मैं अवश्य ही इस व्रत को पूरा कर सकूँगी।

राजर्षि ने कहा---"बेटी! तीन रातवाला व्रत बड़ा कठिन है। तीन रात तक अन्न और जल को छोड़कर यह व्रत करना पड़ता है। व्रत से और उपवास से तुम्हारा शरीर योंही दुबला हो गया है, अब इस कृच्छ्-साधना की कोई ज़रूरत नहीं। देवता तो सिर्फ़ भक्ति चाहते हैं। उपवास से दुबले होने पर भक्ति नहीं बन पड़ती। इसलिए उमसे देवता भी प्रसन्न नहीं होते।" सावित्री ने कहा--- पिताजी! इस व्रत में मुझे कोई कष्ट नहीं होगा। यह व्रत तो मुझे करना ही होगा। पिता! दुःखिनी दासी के हठ को क्षमा कीजिए। मुझे व्रत करने की आज्ञा दीजिए।

शैव्या देवी ने सावित्री की ठुड्डी पकड़कर प्रेम से कहा---"बहू! तुम्हारी कामना पूरी हो।" सावित्री ससुर और सास के पैर लगकर स्वामी की आज्ञा लेने के लिए पूजा में लगे हुए स्वामी के पैर छूने लगी। सत्यवान ने कहा---क्या यह मेरी विजयिनी है? मरते हुए की ज़िन्दगी में अमृत ढालनेवाली देवी! कैसे आई?

सावित्री ने कहा---नाथ! मैं कोई पक्का संकल्प करके तीन रात का व्रत करना चाहती हूँ। सास-ससुरजी ने तो कह दिया, अब मैं आपकी सम्मति लेने आई हूँ। आप मुझे आज्ञा दें।

सत्यवान ने सावित्री के माथे में होम का तिलक लगाकर और गले में देवता की उतरी हुई माला पहनाकर कहा---मङ्गलमयी! तुम क्या व्रत करोगी? तुम तो साक्षात् शुभ हो। तुम्हारे आने से