स्वयंवर की बात सुनकर अनेक राज्यों के राजा और राज-सेवक कुण्डिनपुरी में आने लगे। धीरे-धीरे उस नगरी की अपूर्व शोभा हो गई। नगरी के बाहर अनगिनत ख़ोमे खड़े किये गये। आये हुए राजाओं के अपार ठाट-बाट, हाथी-घोड़ों की चिग्घाड़ और हिनहिनाहट तथा सेना के कोलाहल से कुण्डिननगरी में, पर्व समय के समुद्र की भाँति हर्ष की तरङ्ग उठने लगी। नये-नये बन्दनवारों से सड़कें सजाई गईं। अनगिनत ध्वजा-पताकाएँ राजधानी के महलों के ऊपर फहराने क्या लगी मानो हवा में सिर उठाकर स्वयंवर का समाचार और विदर्भ देश का आनन्द-समाचार प्रकट करने लगी। सारांश यह कि राजा भीम ने बेटी के स्वयंवर के समय तैयारी करने में कोई बात उठा नहीं रक्खी। धीरे-धीरे वह दिन आ गया जिस दिन कि स्वयंवर होने को था।
दमयन्ती के स्वयंवर का न्यौता पाकर महाराज नल बड़े ठाट-बाट से आ रहे थे। बहुत ही बढ़िया रूपवाली दमयन्ती को पाने की लालसा से इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम भी स्वर्ग से आ रहे थे। रास्ते में उनसे नल की भेंट हुई। नल ने सोचा कि मनुष्य की बेटी के स्वयंवर में देवताओं का आगमन! ऐसे आश्चर्य की बात तो पहले कभी नहीं देखी गई। न जाने विदर्भ की राजकुमारी कितनी सुन्दर है। राजा नल मन रूपी कूँची से उस राज-दुलारी का सुन्दर चित्र खींचने लगे।
देवता लोग भी नल के अनोखे रूप और साज-बाज को देखकर अपने ऐश्वर्य का तुच्छ समझने लगे। उन्होंने अपने मन में यह पक्का विश्वास कर लिया कि स्वयंवर-सभा में नल जायँगे तो उस राजकुमारी के हाथ की जयमाल इसी भाग्यवान् के गले में पड़ेगी। यह सोचकर देवताओं ने एक चालाकी की।