यह सुनकर नल के हृदय में एकाएक महा खेद छा गया। उन्होंने सोचा कि मैंने इतने दिनों से जिसकी मोहनी मूर्त्ति को हृदय के सिंहासन पर बैठा रक्खा है---सोते-जागते और सपने में भी जो मेरे जीवन की संगिनी है, इस जीवन-रूपी संग्राम में जिसकी ढाढ़ांस युक्त वाणी मुझको हिम्मत दिलावेगी, जिसको मैंने भविष्य-जीवन की एकमात्र सहेली मान रक्खा है उससे मैं कैसे कहूँगा कि तू दूसरे पर प्रेम कर; और ऐसा करने की कोशिश ही मैं कैसे करूँगा? यह तो अनहोनी बात है! यह तो सजीव देह से शक्ति को अलग करने का निष्फल उपाय है, यह तो अपने हाथ से सरासर अपना नाश करना है। कामदेव को लजानेवाले उस मुख पर खेद की काली छाया पड़ती देखकर देवताओं ने कहा--नल तुम अपने वचन को याद करो। तुम्हीं ने पहले मंज़ूर किया है। हम लोग तुम्हारे मन का भाव समझ गये, किन्तु हे निषधपति! पुरुष का प्राण सत्य ही है, आशा है कि तुम इस बात को नहीं भूलोगे।
नल को एकाएक होश हुआ। उन्होंने सोचा---पुरुष का प्राण तो सचमुच में सत्य ही है। कुछ भी हो, मुझे सत्य की रक्षा करनी ही पड़ेगी। चाहे जितना बड़ा स्वार्थ क्यों न हो, सत्य के सामने उसको नीचा देखना ही पड़ेगा।
सत्यसन्ध नल का मुँह खिल गया। नल ने कहा---देवताओ! मैं विदर्भ-राजकुमारी के पास अभी जाता हूँ, किन्तु मुझे कृपा करके इसका उपाय बता दीजिए कि राज-महल के भीतर मैं कैसे पहुँचूँगा; और राजकुमारी से भेट किस प्रकार होगी।
नल की यह बात सुनकर देवता बहुत खुश हुए। उस समय, इन्द्र ने नल को माया से छिपने का वर दिया। उस वरदान के प्रभाव से दूसरों की आँखें बचाकर, नल चाहे जहाँ आ-जा सकेंगे।