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आख्यान
१६१
दमयन्ती

की लगाम खींच ली गई और रथ में जुते हुए चारों घोड़े धीरे-धीरे पृथिवी पर उतरे।

ऋतुपर्ण ने पूछा---बाहुक! रथ की चाल धीमी क्यों हुई?

बाहुक---महाराज! हम लोग विदर्भ-राज्य के पास पहुँच गये।

राजा---अयँ! इतने थोड़े समय में, तुमने इतनी दूर का रास्ता कैसे तय कर लिया!

बाहुक---महाराज! मैंने पहले समय में महाराज नल से घोड़ा हाँकने की विद्या सीखी थी। इस विद्या के प्रभाव से मैं घड़ी भर में चार सौ कोस तक रथ ले जा सकता हूँ। ये देखिए, ताप्ती और भद्रा आदि विदर्भ-राज्य की नदियाँ हैं।

राजा---भद्र, मैं तुम्हारा घोड़ा हाँकना देखकर बहुत ख़ुश हुआ हूँ। बताओ, तुमको क्या इनाम दूँ?

बाहुक ने नम्रता से कहा---महाराज! आप पासा खेलने में चतुर हैं। मुझे वही विद्या सिखा दीजिए।

राजा ऋतुपर्ण ने कहा---मैं तुमको वह विद्या सिखा दूँगा। परन्तु एक शर्त है---मैं तुमसे, उसके बदले में, घोड़ा हाँकने की विद्या सीखना चाहता हूँ।

विदर्भ---नगर के बाहर, बाहुक ने राजा ऋतुपर्ण को घोड़ा हाँकने की, और ऋतुपर्ण ने उसे जुआ खेलने की, विद्या सिखा दी।

ऋतुपर्ण ने विदर्भ में पहुँचकर स्वयंवर का कोई भी चिह्न न देखा। इससे उन्हें अचरज हुआ। उन्होंने सोचा, तो क्या किसी ने मुझे धोखा दिया है! अब उनको होश हुआ। वे सोचने लगे कि "दमयन्ती क्या फिर स्वयंवर कर सकती है! जिसने देवताओं को छोड़कर निषध-पति के गले में जयमाल डाली थी, उसके फिर स्वयंवर करने की खबर पर विश्वास करके मैं यहाँ आया हूँ! अफ़सोस!"