सारथि एक आधी फटी हुई धोती और दो कपड़े लेकर केशिनी के संग चला।
राजभवन में बाहुक जल्दी आ पहुँचा। उसने सोचा कि हाय रे दुर्दैव! मैं जिस राजभवन में एक दिन चतुरङ्गिनी सेना लेकर ठाट-बाट से आया था आज अभाग्य के फन्दे में पड़कर वहीं इस दीन-वेष में आना पड़ा! बाहुक को साथ में लिये केशिनी दमयन्ती के कमरे में गई।
विरह से व्याकुल दमयन्ती का उदास चेहरा देखकर नल बहुत दुःखित हुए। दमयन्ती ने यद्यपि इस कुरूप और कुबड़े सारथि को नल की छिपी हुई सूरत समझ लिया था तथापि उसका सन्देह अभी दूर नहीं हुआ था। इससे उसने कहा---'हे सारथि! स्वामी के साथ वन में रहनेवाली स्त्री को घोर वन में अकेली सोती छोड़कर चला जाना क्या ऊँचे हृदयवाले स्वामी का काम है? जिन महापुरुष ने स्वयंवर-सभा में आये हुए देवताओं से भी ज़ियादा इज्ज़त लूटकर स्वयंवर की माला पाई थी; जिन्होंने अग्नि को गवाह करके प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं तुम्हारा हुआ;' उनका बिना कोई अपराध के---स्वामी को ही प्राणों का आधार समझनेवाली--स्त्री को असहाय अवस्था में छोड़ देना क्या उनके सत्य-प्रतिज्ञ नाम की इज्ज़त बढ़ाता है?" यह बात कहते-कहते दमयन्ती की आँखों से आँसुओं की वर्षा होने लगी।
नल ने रुके हुए स्वर से कहा---देवी! मनुष्य की इच्छा से कोई काम नहीं होता, सब कामों के मालिक भगवान हैं। वे ही इस बड़े भारी विश्वयन्त्र को चलाते हैं। इसलिए सज्जन इस मङ्गलमय जगत् को आँसू बहाकर कभी कलङ्कित नहीं करते। खास कर, गूढ .