बहुत तिरस्कार करके वह हार दूर फेंक दिया। कैकेयी धीरे-धीरे गहरे सन्देह में डूबने लगी। वह सोचने लगी कि मामला क्या है।
कैकेयी का स्वभाव बड़ा सरल और सुन्दर था, किन्तु शायद बुद्धि स्वभाव के समान नहीं थी। इसलिए वह सहज ही कुटिल मन्थरा के हाथ की कठपुतली बन गई। उसने अपनी मर्यादा का विचार न कर दासी के बहकाने से रानीपन छोड़ दिया। मन्थरा की सलाह से उसके सरल स्वभाव में गरल घुस गया। कैकेयी ने सोचा कि सच तो है, राम से मेरा भरत किस बात में घट कर है? सात-पाँच सोचकर रानी राजा से थाती-स्वरूप दो वर लेने की इच्छा से सँभलकर बैठ गई। मन्थरा ने सलाह दी कि इस तरह राजा का मन हाथ न आवेगा। आँसू टपकाना, भूमि पर लोटना और जेवर उतार फेंकना ही स्वामी को सीधे रास्ते लाने का बढ़िया उपाय है। कैकेयी प्रफुल्ल-मुख को आँसुओं से भिगाकर और ज़ेवर उतारकर लेटने के कमरे में धरती पर लोट गई। मन्थरा 'तीर लगा है' समझकर वहाँ से हँसी-खुशी से चली गई।
तिलक की सब व्यवस्था करने के बाद महाराज दशरथ ने, महल में जाकर देखा कि कौशल्या, पुत्र के कल्याण के लिए पूजा कर रही है और कैकेयी के कमरे में जाकर देखा कि वह, हवा से गिरे हुए केले के पेड़ की तरह, धरती पर पड़ी हुई है। आज, इस आनन्द के दिन प्यारी रानियों के बदन पर आनन्द की झलक देखकर राजा प्रसन्न होने की बात सोचते थे किन्तु यह क्या! यह क्या बला आई, सोचकर, रह-रहकर, बूढ़े का दम फूलने लगा।
बहुत मनाने पर कैकेयी ने कहा---महाराज! आप सत्यव्रत हैं। आपने बहुत दिनों से मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा कर रक्खी है। मैं आज वह वर लेना चाहती हूँ।