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[चौथा
आदर्श महिला


विश्वामित्र—महाराज! तुम अभी मुझे सारी पृथिवी दान में दे चुके हो। इसलिए तुम्हारा राज्य, तुम्हारी राजधानी, तुम्हारे महल और तुम्हारा ख़ज़ाना सब कुछ अब मेरा है।

राजा के कान खड़े हुए। वे सोचने लगे—तो क्या मैं अकेला रह गया! मेरी प्राणप्यारी शैव्या और प्राणाधिक रोहिताश्व क्या अब मेरे नहीं रहे?

महर्षि—महाराज! स्मरण रहे, आज से रानी और राजकुमार इन दोनों पर ही तुम्हारा अधिकार है। इसके सिवा जो और किसी चीज़ को तुम अपनी समझोगे तो दिये हुए दान को ले लेने का महापातक तुम्हें लगेगा।

राजा ने कहा—महर्षि! मैं आपको एक पखवारे में इस दक्षिणा की रक़म दूँगा। कृपा करके दास की प्रार्थना पूरी कीजिए।

"अच्छा, यही सही; किन्तु महाराज! एक बात और है। आज से सारी पृथिवी पर मेरा अधिकार है। दिये हुए धन पर अधिकार रखना ठीक नहीं। तुम आज रात बीतने से पहले ही इस पृथिवी पर से कहीं दूसरी जगह चले जाना। एक पखवारे के बाद मैं तुमसे भेंट करूँगा। उस समय तुमसे मेरी दक्षिणा मिलनी चाहिए।" यह कहकर महर्षि तुरन्त वहाँ से चले गये।

राजा सोचने लगे—यह क्या हुआ! मैं एक पखवारे में एक हज़ार मोहरें कहाँ से दूँगा?

यह सोचते-सोचते वे राजमहल में रानी के पास गये। रानी शैव्या देवी ने राजा का उदास मुँह देखकर घबराहट से पूछा—स्वामी! आज आप इतने विकल क्यों हैं? आपके सुन्दर मुख पर हँसी नहीं है, कमल-सी आँखें आँसुओं से छल-छल कर रही हैं, मानो किसी दुर्भाग्य ने आकर आपके सदैव खिले रहनेवाले मुख को