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आख्यान ]
१८७
शैव्या


अब शाप देने के लिए महर्षि ने चुल्लू में पानी लिया। विश्वामित्र का क्रोध देखकर मानो धरती थर-थर काँपने लगी। दिशाओं में सन्नाटा छा गया। हरिश्चन्द्र संकट देखकर, महर्षि के चरणों में गिरकर, क्षमा माँगने लगे।

राजा की गिड़गिड़ाहट देखकर विश्वामित्र को कुछ दया आ गई। उनकी भ्रुकुटी जो ऊपर को तनी थी वह कुछ नीचे उतर आई।

महर्षि ने कहा—राजा! तुम अपने इस अन्याय के लिए मुझे कुछ दान दो।

राजा—महाभाग! आपकी कृपा से मैं कृतार्थ हुआ। आप जो कहें, मैं देने को तैयार हूँ।

महर्षि—देखना राजा! सत्य से पीछे पैर मत रखना। मैं जो चाहता हूँ सो सुनो। मैं एक यज्ञ करना चाहता हूँ। मुझे इतना धन दो जिससे वह यज्ञ पूरा हो सके।

राजा—देव! यज्ञ के लिए दान करना तो राजा का मुख्य काम ही है। इसलिए यह तो मेरे अपराध का दण्ड नहीं हुआ।

महर्षि—तब तुम अपनी समुद्रों-सहित धरती मुझे दान में दे दो।

यह बात सुनकर राजा का कलेजा काँप उठा। उन्होंने कुछ देर चुप रहकर कहा—महर्षि! मैंने आपकी बात मानकर समस्त पृथिवी का दान कर दिया।

विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर कहा—राजा! तुमने दान तो किया, किन्तु दक्षिणा बिना दान पूरा नहीं होता—इस बात को तो जानते ही होंगे। इसलिए तुम इस दान की दक्षिणा में मुझे एक हज़ार मोहरें और दो।

हरिश्चन्द्र ने कहा—अच्छा, मैंने दक्षिणा में आपको एक हज़ार मोहरें भी दीं।