वारे की मुहलत ली है। रानी! समझ में नहीं आता कि मैं एक पखवारे में उनको दक्षिणा कैसे दे सकूँगा।
रानी—महाराज! अब यह सोचने का समय नहीं है। चलिए, हम लोग आज ही राजधानी से निकल चलें।
राजा—देवी! आज हम लोग काशी को रवाना होंगे। काशी शिव के त्रिशूल पर बसी हुई है, इसलिए वह पृथिवी के भीतर नहीं। चलो रानी! हम लोग वहाँ जाकर बाबा विश्वनाथ और देवी अन्नपूर्णा के चरणों में भक्ति से फूल और जल चढ़ाकर कृतार्थ होंगे।
इधर अयोध्या की प्रजा राजा के इस पृथिवी-दान का समाचार पाकर बहुत ही दुःखित हुई। मंत्री और सेनापति आदि सरकारी ओहदेदारों के सामने, क्रोध की प्रत्यक्ष मूर्ति के समान, विश्वामित्र ऋषि ने राजा को जैसी कड़ी-कड़ी बातें सुनाई थीं और समुद्रों-समेत धरती के चक्रवर्ती राजा ने जिस कोमल वाणी से महर्षि की कृपा के लिए प्रार्थना की थी, उसी की चर्चा अब अयोध्या भर में घर-घर होने लगी। सब लोगों ने तय कर लिया कि राजा के साथ हमलोग भी अयोध्या से निकल चलेंगे।
धीरे-धीरे सन्ध्या हुई। सूर्य देवता, मानो कुल-दीपक हरिश्चन्द्र को मुनि से सताये जाते देख, क्रोध से लाल हो पश्चिम समुद्र में डूबने चले गये; चिड़ियाँ मानो राजा के दुःख से व्याकुल हो कोलाहल करने लगीं। मन्दिर में सन्ध्या-समय की आरती का श्रेष्ठ बाजा मानो खेद की ध्वनि ज़ाहिर करने लगा। राजा और रानी दोनों दुखे हुए हृदय से आज देवता के चरणों में प्रणाम कर बिदा माँग आये।
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रात में सन्नाटा छा रहा है। जीव-जन्तु चुपचाप सोये हुए हैं। आकाश में धीरे-धीरे बादलों के उमड़ आने से रात का अँधेरा