सम्बोधन करके कहा—मा जानकी! मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सका। जिसने तुम्हारी लता-सदृश देह में बिजली की शक्ति दी है, जिसने तुम्हारे वीणा को लजानेवाले स्वर में वज्र की क्षमता दी है, जिसने तुम्हारी स्त्री-स्वभाव-सुलभ लज्जा में विजय-श्री दी है; वही विधाता तुम्हारा मङ्गल करे; उसका स्नेहाशीर्वाद अक्षय कवच की भाँति तुम्हारी रक्षा करे। मेरे जीवन का दिया बुझने पर है। इस बीच में अगर तुम्हारे भुवनों को जीतनेवाले स्वामी रामचन्द्र तुम्हें ढूँढ़ते हुए यहाँ आ पहुँचे तो मैं उनसे सब हाल कह दूँगा। जाओ सती, सतीत्व ही आज से तुम्हारा रक्षा-मन्त्र हो।
सीताजी ऊँचे स्वर से रोने लगीं, किन्तु आत्मरक्षा का कोई उपाय न देख कनेर का वन सामने पाकर बोलीं—"हे कनेर! तुम तुरन्त रामचन्द्र से कहना कि रावण सीता का हरे लिये जाता है।" वे गोदावरी नदी को देखकर बोलीं—हे तरङ्गिणी! मैं तुम्हारे किनारे बैठकर हताशा में बहुत कुछ ढाढ़स पाती थी; सखी! तुम इस विपद की बात आर्य्य रामचन्द्र से अवश्य कहना। "फिर वे दिगङ्गनाओं को सम्बोधन करके बोलीं—"हे दिगङ्गनाओ! तुम जगत् के पहरुए के रूप से सदा सजग रहती हो; देखो, दुष्ट रावण मुझे हर कर लिये जाता है। आर्य्य रामचन्द्र को यह समाचार कह सुनाना।" किन्तु इतना विलाप करने पर भी और कोई उस पाप-मुर्ति रावण के सामने आकर उपस्थित नहीं हुआ। सती सीता का रोना सचमुच अरण्य-रोदन हुआ।
सीता ने और कोई उपाय न देखकर सोचा कि अब इस सिंगार- पटार से क्या काम! यह तो आर्य्य रामचन्द्र कं आनन्द के लिए था। जब वे यहाँ से दूर हैं, तब मेरे ये भूषण आदि सदा वन्दनीय पति देवता के ऊपर न्योछावर हों। इससे सौभाग्यवती सीता भूषणादि निकाल-निकालकर फेकने लगीं। शोक-विह्लला सीता के, सुध-बुध