प्राप्त हुआ था। इसी से कितने ही साधु, महात्मा और तपस्वी निर्जन गिरि-गुफाओं में और घोर जंगलों में तपस्या करके ब्रह्मज्ञान के उच्च प्रासन पर जा विराजे थे। छाया-शीतल सहस्रों तपोवनों से निकल कर यज्ञों के धुएँ ने देवता और मनुष्य के सम्बन्ध को अत्यन्त निकट कर दिया था।
भारतवासियों का लक्ष्य बहुत काल से उच्च था, और उनका आदर्श भी उन्नत था। इसी से वे लोग मनोराज्य के अनेक अज्ञात सिद्धान्तों के आविष्कार करने में समर्थ हुए थे। कर्तव्यों और सुव्यवस्था ने उनके सामाजिक जीवन को सुखमय और शान्ति-पूर्ण कर दिया था। इस प्रकार, मानव-सभ्यता का पहला सिद्ध-स्थान भारत जगत् का चिरवन्दनीय हो रहा था। इच्छाशक्ति की सजीवता ने ही कर्तव्य-पथ में आगे बढ़ा कर उसे सफल-प्रयत्न और धन्य किया था। जगत् के इतिहास की आलोचना करने से ज्ञात होता है कि, जब जिस जाति की वासना पूर्ण हुई है तब वह जाति शुरू-शुरू में दुर्बल और निरीह अवस्था में ही रही है। किन्तु जहाँ अभिलाष उच्च है और जहाँ आदर्श बड़ा है, वहाँ उन्नति अवश्य होती है। इसी कारण,प्राचीन भारत क्रमशः उन्नति के ऊँचे शिखर पर चढ़ने में समर्थ हुआ था। जब-जब भारत का गगन-चुम्बी गौरव-किरीट निश्चेष्टता के कुहरे अथवा लुटेरों और विद्रोहियों के विचित्र नरताण्डव की धूलि-राशि से ढका है, तब-तब युग-युग में यह कर्मवीर और ज्ञानवीर के अभ्युदय से एक नई आशा की किरणों से देदीप्यमान हो उठा है; तब-तब का गुरूपदिष्ट भारत तुङ्ग-तरङ्ग-भीषण कर्म-समुद्र को लाँघकर साधन के किनारे लगने में समर्थ हुआ है। किन्तु उसकी इस समुद्र-यात्रा में कर्णधार कौन है? कर्म-संग्राम में उसको अग्रसर कर किसने उसका साथ दिया? किसने उसको उत्साहित किया?---उसकी दुर्निवार ऊँची आकांक्षा ने।