इस संसार में ऐकान्तिक शुभाभिलाष की उत्तेजना से कर्तव्य के मार्ग में जो घूमते हैं, उनके पुरोवर्ती आदर्श-पुरुषों की पंक्ति क्रमशः दूर खिसक कर कर्मक्षेत्र की विपुलता और प्रकृति की विविध विचित्रता दिखाकर उन्हें अपनी ओर खींचती है; तब उनकी गति अबाध और बे-रोक होती है। ऊँची आकांक्षा ही जातीय जीवन का मूलसूत्र है और सामाजिक उत्साह ही दौर्बल्य-रोग का महौषध है। जिस जाति में प्रबल आकांक्षा नहीं वह जड़ और मृतकतुल्य है। जातीय जीवन की जड़, यह उन्नति की आकांक्षा, क्रमशः धर्म की उन्नति में परिणत होकर जातीय जीवन को उन्नत और मङ्गलमय बनाती है। इस लिए जहाँ आकांक्षा ऊँची है, जहाँ सत्य से अनुप्रेरित प्रवृत्ति अनुकूल है---आदर्श सामने मौजूद है, इच्छा-शक्ति जहाँ दुर्निवार्य है---वहाँ सिद्धि अवश्यम्भावी है। किन्तु सिद्धि का द्वार साधना ही है। उद्देश्य महान् और लक्ष्य उच्च होने से मनुष्य साधन-क्षेत्र में सिद्धि पाता है। यह जो सत्य की प्रेरणा है; यह जो वासना की अदम्य तीव्रता है, यही सामाजिक शक्ति के प्राण हैं; यही पूर्व-पुरुषों की चिता-भस्म से शक्ति का नया अंकुर उत्पन्न करती है। इस प्रकार, भारत पुरानी अभिज्ञता से भविष्यत् जीवन के उपयुक्त शान्ति और नियम की निष्पत्ति के लिए उद्देश्य की सृष्टि करता है।
इस साधन के लिए भारत में कितने ही आदर्श-चरित्र स्त्री-पुरुषों
ने जन्म ले करके उसे धन्य और चिर-पवित्र किया है। पूर्वकाल में
भारतवासी लोग मनसा, वाचा, कर्मणा उन सब आदर्श-चरित्रों का
अनुसरण करते थे। सच तो यह है कि कर्म-जीवन में आदर्श का
प्रभाव असीम है। आदर्श उच्च होने से चेष्टा भी उत्कृष्ट होती है।
आदर्श-चरित्र का पूरी रीति से अनुकरण न होने पर भी उसका स्मरण मनुष्य को धन्य और सार्थक करता है, हृदय को बलिष्ठ करता है। आदर्श