लगीं। भूख-प्यास और शोक से दुर्बल उनकी देह-लता आज लहलहा उठी। सीता ने कहा—वत्स हनुमन्! मैं किन शब्दों में आज हृदय का आनन्द प्रकट करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। मेरे पास ऐसा कोई लौकिक धन नहीं जिसे देकर मैं अपने जी का सन्तोष प्रकट करूँ।
हनुमान् उन पहरा देनेवाली राक्षसियों को मारने पर उद्यत हुए। यह देखकर करुणारूपिणी सीता देवी ने कहा—बेटा! इनका कुछ अपराध नहीं। इन्होंने अपने मालिक की आज्ञा से मेरे साथ बुरा बर्ताव किया है, इसलिए इन्हें मत मारो।
सीता देवी का यह महत्त्व देखकर हनुमान् पुलकित हो गये। उन्होंने सोचा कि यह साधारण स्त्री की बात नहीं है। यह धरती पर कोई देवी है। दुर्दैव ने इसकी पवित्रता और मधुरता को और भी बढ़ा दिया है। हनुमान् सीता देवी के मातृभाव और देवीभाव पर भोले-भाले बालक की तरह घुल गये। उनको अपनी माता अञ्जना की स्नेह-युक्त दृष्टि याद आ गई। आज वे मातृभाव से, बालक की तरह, विमुग्ध हो गये।
बहुत देर बात-चीत करने के बाद हनुमान् ने बिदा माँगी। सीता देवी ने कहा—बेटा! मैं इतने दिन से जिन पति-देवता की पवित्र-मूर्त्ति का मानस-नेत्र से ध्यान करती हूँ, जिनका विरह मुझे बहुत दुःख दे रहा है, जिन महा बलवान् की दुर्द्धर्ष शक्ति से राक्षस-वंश को उचित दण्ड मिला है, अपने जीवन-आकाश के उन एक-मात्र पूर्ण चन्द्र आर्यपुत्र को देखने के लिए मैं व्याकुल हो रही हूँ।
हनुमान् ने तुरन्त जाकर रामचन्द्र से सीता देवी की बात कही। रामचन्द्र के मन में सहसा एक दूसरा भाव उत्पन्न हुआ। कई तरह की चिन्ताएँ उनको व्याकुल करने लगीं। उन्होंने दुःखित हृदय से