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आदर्श महिला

का विषाद-सुर पकड़ा। रामचन्द्र के मन में लोक-निन्दा की आशङ्का खड़ी हुई।

हाय री लोकनिन्दा! जो पति-सुहागिनी जी-जान से पति के मुख-कमल का ध्यान करती आई हैं, जिन्होंने राक्षस-पुरी में घटा से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति अपनी महिमा को स्थिर रक्खा है, जिन्होंने हताशा से पीड़ित हृदय को सतीत्व की शोभा के अपूर्व गौरव-किरीट से शोभित किया है, और जो भविष्यत् में सतीत्व और मातृत्व के आदर्शस्वरूप बनी रहेंगी उन पर भी तू अपने अन्धकारमय राज्य की छाया डालती है।

सहसा रामचन्द्र का हृदय लोकनिन्दा से हिचक गया। उन्होंने सोचा, मैं जानता हूँ कि सीता सतीत्व की अत्युज्ज्वल मूर्त्ति हैं, वे महिमा की बिना सूँघी हुई कुसुम-माला और प्रेम की अटूट पीयूष धारा हैं; किन्तु मैं राजा हूँ, मेरा हृदय प्रजारञ्जन करने के लिए बाध्य है, मुझे तनिकसी भी स्वतन्त्रता नहीं। साधारण प्रजा का जो यहाँ सत्य को नहीं समझ सकेगा। यद्यपि सीता देवी को ग्रहण करने पर मैं धर्म से नहीं गिरूँगा बल्कि मेरा हृदय सती का साथ मिलने से और भी अधिक तृप्त होगा; किन्तु प्रजा इसमें न जाने कितना अनर्थ सोचेगी।

यह सोचकर रामचन्द्र ने सीता देवी से कहा—मैं पवित्र इक्ष्वाकु-वंश की मर्यादा बनाये रखने के लिए इस महायुद्ध में प्रवृत्त हुआ था। जो मनुष्य, अपमानित होकर, अपमान का बदला नहीं लेता वह कापुरुष है; उस अभागे से वंश को कलङ्क लगता है। मैंने इसी आशङ्का से दुष्ट रावण को निवेश करके तुम्हारा उद्धार कर भुवन-विख्यात रघुवंश का सम्मान बढ़ाया है। जानकी! तुम मुझे प्राण से भी प्यारी हो किन्तु, नीति की मर्यादा तोड़कर, मैं तुमको ग्रहण करने में असमर्थ हूँ। मनुष्य इस पृथ्वी पर अपने कर्म का फल भोगते हैं। तुम अपने