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आख्यान]
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सीता

कर्म का फल भोगो। विषयी रावण तुमको बुरी दृष्टि से देखता था और उस पापी ने तुम्हारे शरीर को स्पर्श किया था इसलिए मैं तुमको ग्रहण नहीं कर सकता। मेरे इस रण-श्रम और वैर-साधन को केवल अपने पवित्र वंश की गौरव-वृद्धि के लिए समझना। देवी! यह विशाल पृथिवी अनेक प्राणियों को अपनी गोद में लेकर अन्न-जल देती है, तुम भी जहाँ जी चाहे वहाँ जाकर स्वाधीन भाव से रहो। अथवा रामचन्द्र के मुँह से और बात नहीं निकली। वे हृदय के हाहाकार को दबाकर ज्वालामुखी पहाड़ की तरह बार-बार लम्बी साँस लेने लगे। पास में बैठी हुई बन्दर-सेना रामचन्द्र के मुँह से असम्भव बात सुनकर व्यथित हुई। पतिव्रताओं की गौरव-पताका-स्वरूप सीता देवी स्वामी के मुँह से ऐसी अनायोचित बात सुनकर मर सी गई; मानो पृथिवी पर उन्हें, मुँह छिपाने को, कहीं स्थान ही नहीं रहा।

पहले ही कहा गया है कि सीता क्षत्रियाणी हैं। नीति को मर्यादा को रखकर, उन्होंने वनवास जाने को तैयार स्वामी के साथ चलने के लिए जो-जो युक्तियाँ दिखाई थीं उनका वर्णन करते हुए हमने सीता देवी की एक गौरवमयी मूर्त्ति देखी है। यहाँ फिर उन्हीं सीता देवी को, अपने पक्ष-समर्थन में चतुर, उज्ज्वल मूर्ति देखेंगे।

तेजस्विनी सीता देवी ने अपने आँसू पोंछकर अभिमान-पूर्वक दृढ़ स्वर से कहा—आर्य्यपुत्र! आप, साधारण मनुष्य की भाँति, यह क्या कह रहे हैं? जान पड़ता है कि लड़ाई की हैरानी से आपका चित्त ठिकाने नहीं है। नहीं तो इक्ष्वाकु-वंश की गौरव-रक्षा करने के लिए निरपराधिनी धर्म-पत्नी को छोड़ने का इरादा क्यों करते? जिस अनन्य-शरणा ने एक-चित्त से पति-देवता के पवित्र चरणों का ध्यान करते हुए दिन बिताये हैं उसको बिना अपराध त्यागकर आप वंश का गौरव बढ़ाया चाहते हैं? युद्ध-क्षेत्र में भ्रान्त-बुद्धि हतभाग्यों का