कर्म के रणक्षेत्र में उत्साहित करके मनुष्य को विजय के गौरव-किरीट से विभूषित करता है। आदर्श मनुष्य-जीवन में विचित्र सृष्टि का सम्पादक है; आदर्श पाकर राक्षस भी मनुष्य हो जा सकता है। जिस समाज में आदर्श नहीं, वह समाज समाज ही नहीं। आदर्श के अभाव से मनुष्य की जीवन-नौका नाना प्रकार की कुरीतियों के भंवर में पड़कर चक्कर खाती रहती है।
अच्छा, यह आदर्श चरित्र क्या है? जिस चरित्र में बुद्धि-वृत्ति के साथ कार्यक्षमता और कर्तव्यपरायणता सम्पूर्ण रूप से पाई जाय वही आदर्श चरित्र है। पार्थिव जीवन में मनुष्य को अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओं के घात-प्रतिघात से निरन्तर दु:खित होना पड़ता है। इस घोर द्वन्द्व में जगदीश्वर की सृष्टि का रहस्य समझकर जो कर्तव्यपथ में अग्रसर हो सकते हैं वही धन्य हैं; उन्हीं के चरणों में उत्तर-कालीन स्त्री-पुरुष भक्तिभाव से अर्घ डालते हैं। ऐसा जीवन ही आदर्श जीवन है। आदर्श जीवन का सहज अनुभव होने पर भी उसका अनुकरण करना बड़ा कठिन है। घोर विपत्ति में पड़कर मनुष्य जब चञ्चल हो जाता है, तब आदर्श अपनी स्नेह से भरी मधुर अभय वाणी सुनाकर उसको सच्चे शुभ कार्य के मार्ग में अग्रसर कर देता है। पैंट्समैन जैसे लाल झण्डी दिखाकर रेलगाड़ा की गति को रोक देता है, वैसे ही आदर्श अपने जीवन के विविध दुःखों और विडम्बनाओं का चित्र दिखाकर मनुष्य को सावधान कर देता है। सांसारिक मोह से जब हमारी दृष्टि धुँधली हो जाती है तब आदर्श का कल्याण-अञ्जन उसे स्वच्छ कर देता है। इस तरह आदर्श, मनुष्य-जीवन में देवता की भाँति वास्तविक कल्याण को विकसित करने के लिए सतत प्रयत्नशील बना रहता है। संसार के विषम मार्ग में हमें इस बात को अच्छी तरह समझ-बूझकर चलना चाहिए।