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आदर्श महिला

जो बीतता है उसके बनानेवाले भगवान् हैं। मेरे भाग्य में जो हुआ वह उन्हीं का विचित्र विधान है। इसलिए वत्स! यदि मेरे ऊपर तुम्हारा स्नेह हो तो तुम शोक त्यागो। लक्ष्मण! मैं वनवास में नई नहीं हूँ। मैं तो आर्य्य रामचन्द्र के साथ बहुत दिन वन में रह चुकी हूँ। स्वामी के साथ वनवास में अयोध्या के राज-सुख को और माया के ऐश्वर्य को मैं भूल ही गई थी। मुझे अपने लिए कोई चिन्ता नहीं है, मैं केवल यही सोच रही हूँ कि अगर वनवासी मुनिगण मुझसे वनवास का कारण पूछेंगे तो मैं क्या बताऊँगी। 'आर्य्यपुत्र! तुमने मुझे निरपराध जानकर भी केवल प्रजा-रञ्जन के लिए विपद के इस दुस्तर समुद्र में डाल दिया है। भगवान् तुम्हारी इस आदर्श प्रजाप्रियता को पूरी करें।' मेरी मानसिक व्यथा के लिए कोई ढाढ़स नहीं है। इक्ष्वाकु-वंश की सन्तान मेरे गर्भ में है, इससे मैं आत्म-हत्या करके उसका प्राण लेने को तैयार नहीं हूँ।

सीता की यह विषाद-मयी मूर्त्ति और आँसुओं की धारा देखकर लक्ष्मण ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। सीता ने स्नेह-पूर्वक अञ्चल से लक्ष्मण के आँसू पोंछकर कहा—लक्ष्मण! शान्त हो। तुम राजा की आज्ञा पालन करने के कारण अपराधी नहीं; मैं आर्य्यपुत्र के हृदय का हाल जानती हूँ। मैं अपराधिनी हूँ, यह समझकर उन्होंने मेरा त्याग नहीं किया है; किन्तु आदर्श प्रजा-प्रिय राजा प्रजा-रञ्जन के कारण ऐसा करने को लाचार हुए हैं। मैं जानती हूँ कि उनके हृदय में मेरे ऊपर बड़ा प्रेम है और मुझे त्याग कर वे भी मेरी तरह शोक-सागर में डूब गये हैं। लक्ष्मण! आर्यपुत्र आदर्श राजा, आदर्श पति, अदर्श मित्र और आदर्श देवता हैं। उनको पाप नहीं लग सकता। लक्ष्मण! उनके पास शीघ्र लौट जाओ। तुम सदा उनकी सेवा करना और उनके पास रहकर उनको ढाढ़स देना। वत्स! देखना, वे अकेले पड़कर