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आख्यान]
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सीता


नाव से उतरकर जब सीताजी तपोवन देखने को जाने की जल्दी करने लगीं तब लक्ष्मण ने कहा—"भाभीजी! ज़रा ठहरिए तो, मुझे कुछ कहना है।" सीताजी ने लक्ष्मण की कातरता देखकर कौतुक से कहा—जल्दी कहो न, क्या कहना है?

लक्ष्मण से वह मर्मभेदी बात कहते नहीं बनती और इधर सीताजी भी घोर सन्देह में पड़ रही हैं। उन्हें एक पल एक युग के समान बीतने लगा। सीता ने कहा—"वत्स! मैं समझ गई। मेरा भाग्य फूट गया है, नहीं तो तुम कहते क्यों नहीं?" सीता की चञ्चलता और आग्रह देखकर लक्ष्मण ने कहा—"देवी! मेरा दोष मत मानिएगा—हाय रे दैव! ऐसे ही असाध्य साधन के लिए तुमने अभी तक मुझे जीवित रक्खा है!" बड़े कष्ट से सिर नीचे किये हुए वे बोले—देवी! आप बहुत दिनों तक रावण के घर रह चुकी हैं। इससे अयोध्या की प्रजा आप के चरित्र पर कलङ्क लगाती है। आर्य्य रामचन्द्र ने यह जानकर आपको जन्म भर के लिए त्याग दिया है; और मुझे आज्ञा दी है कि तपोवन-दर्शन के बहाने ले जाकर इन्हें वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आओ। देवी! यह वाल्मीकि का तपोवन है।

सुनते ही सीताजी मूर्च्छित हो गई। लक्ष्मण बड़े प्रयत्न से सीताजी की मूर्छा छुड़ाने लगे। बड़ी देर के बाद सीताजी ने होश में आकर कहा—लक्ष्मण! अफ़सोस मत करना। इसमें तुम्हारा कुछ भी अपराध नहीं। दोष सब मेरे भाग्य का है। वत्स! भगवान् ने दुःख भोगने के लिए ही मुझे जन्म दिया है, नहीं तो जगत्-प्रसिद्ध रघुवंश की कुलवधू होकर मुझे वनवास क्यों करना पड़ता? मनुष्य इसी पृथ्वी पर कर्म्म-फल भोगता है। जान पड़ता है, मैंने पूर्व-जन्म में किसी प्रेम-मयी साध्वी को पति की गोद से छुड़ाया था। मुझे इस पृथ्वी पर उसी पाप का दण्ड भोगना पड़ा है। वत्स! मनुष्य के ऊपर अच्छा-बुरा