पतिर्हि देवता नार्याः पतिर्बन्धुः पतिर्गुरुः।
प्राणैरपि प्रियस्तस्माद् भर्त्तुः कार्य विशेषतः॥
पति ही स्त्रियों के लिए देवता, मित्र और गुरु है। इसलिए पति का कार्य प्राण से भी प्रिय है। मैं जी-जान से पति का कार्य करूँगी, पति को प्यारा लगनेवाला काम करना ही मेरे जीवन-रूपी यज्ञ का मूल उद्देश है।
सीता मन को जितना ही समझाती हैं मानो वह उतना ही उमड़ आता है। उस देवता-समान स्वामी की गोद से अलग होने पर सती को सुख कहाँ? स्वामी के स्नेह ने उनको व्याकुल कर दिया। सीता रो-रोकर उस जंगल को कँपाने लगी।
रोने का शब्द सुनकर महामुनि वाल्मीकि वहाँ आ गये। उन्होंने स्नेह-भरे कण्ठ से कहा—बेटी जानकी! तुम शोक मत करो। मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो। तुम्हारे पवित्र चरणों की धूल पड़ने से आज मेरा यह आश्रम पवित्र हो गया। सती! विलाप छोड़ो; स्वामी के निकट तुम अविश्वासिनी नहीं हो, मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि रामचन्द्र तुमको परित्याग कर उदास मन से दिन काट रहे हैं। देवी! अयोध्या की राजलक्ष्मी तुम्हारे बिना मलिन हो गई है। बेटी! तुम मुझे पिता-समान जानना। मुझसे तुम्हें किसी बात का कष्ट नहीं होगा। मैं देखता हूँ कि तुम्हारे महीने पूरे हो चले हैं। यहाँ तुम्हें कुछ कष्ट नहीं होगा।
शोकाकुल सीता देवी का मुँह देखकर वाल्मीकि वहुत दुःखित होते और उनको अपने होमकुण्ड के पास बुलाकर शास्त्र की कितनी ही बातें सुनाया करते। वे सीता देवी के हताश हृदय को यह कहकर आनन्दित करते कि तुम्हारे पेट में दो तेजस्वी बालक हैं।