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आदर्श महिला

वाल्मीकि ने आकर सब परिचय दिया; तुरन्त ही सीताजी को फिर से ग्रहण करने का प्रस्ताव उठा। रामचन्द्र ने कहा—देव! आप तो सब जानते हैं, सीता को परित्याग करके मैं सुखी नहीं हूँ। केवल प्रजा के असन्तोष के कारण मैं सीता को त्याग कर मरा-सा हो रहा हूँ। अगर प्रजा को कोई एतराज़ न हो, तो मुझे सीता को फिर से ग्रहण करने में कुछ उज्र नहीं है।

शीघ्र ही इसके उपयुक्त प्रबन्ध हुआ। गेरुआ वस्त्र पहने हुए सीता देवी ने धीरे-धीरे सभा में प्रवेश करके सुना कि इस भरी सभा में फिर चरित्र की शुद्धता का प्रमाण देना होगा। यह सुनते ही उनका टूटा हुआ हृदय अस्थिर हो उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा—मा वसुन्धरे! अगर मैं मन, वचन और कर्म से पति-देवता के चरणों का ध्यान करती होऊँ तो तुम शीघ्र अपनी शान्तिमयी गोद में अपनी इस दुखिया बेटी को स्थान दो।

एकाएक सभा-भूमि दो खण्ड होकर फट गई। सबने देखा कि लोक-माता धरणी स्नेह के हाथ से सीता देवी को गोद में लेकर कमलासन पर बैठ गईं।

सब लोग चिल्ला उठे—सीता-राम की जय! धन्य आदर्श राजा! धन्य आदर्श सती!