सन्तान-कामना से मेरी तपस्या करता है, मैं उसे कन्या पाने का वर कैसे दूँ? कन्या तो वह नहीं चाहता?" ब्रह्मा ने कहा—देवी! पुत्र और कन्या दोनों ही तो सन्तान हैं; दोनों से वंश बढ़ता है, दोनों का नाम सन्तान है। इसलिए अश्वपति को कन्या देने से तुम्हारा अन्याय नहीं समझा जायगा। तुम उसे कन्या का ही वर दो।
राजा अश्वपति को कन्या का वरदान देने से सावित्री का मन नहीं भरता था। ब्रह्मा यह समझ गये। उन्होंने कहा—"देवी! नीच और ओछे विचार के मनुष्य ही बेटा और बेटी में भेद समझते हैं। ममता-रूपी लड़की बूढ़े पिता का प्रधान अवलम्ब है। भक्ति, स्नेह, ममता और सेवा-शुश्रूषा से कन्या देवीरूप में माता-पिता की व्यथा हर लेती है। ऐसी कन्या को तुम पुत्र से खराब समझती हो? देवी! संकोच मत करो। अश्वपति को कन्या देने का एक और मतलब है। शक्ति-स्वरूपिणी नारी सतीत्व के प्रभाव से क्या अनहोनी कर सकती है, यह दिखाना भी इसका मुख्य उद्देश है।" यह कहकर ब्रह्मा ने—सावित्री को अश्वपति की भावी कन्या की कथा कह सुनाई।
सावित्री देवी ने, ब्रह्मा के मुँह से सब हाल सुनकर, प्रसन्नतापूर्वक अश्वपति को सन्तान होने का वर दिया।
महाराज अश्वपति अपने राज्य को लौट आये। राजा का दर्शन पाकर प्रजा पुलकित हुई। इससे अधिक प्रसन्नता उसको यह सुनकर हुई कि राजा की मनोकामना पूरी होगी। सब लोग इसकी बाट देखने लगे कि राजमहल राजकुमार की मृदु मुसकान से कब गूँजेगा, और राजा-रानी का दुःखित हृदय सन्तान का मुख देखकर कब पुलकित होगा।
यथासमय रानी के एक कन्या हुई।
राज्य में आनन्द की सरिता, सैकड़ों धाराओं में, बह चली।