सावित्री देवी ने देखा कि रानी के लड़की होते देखकर राजा अश्वपति को देवता के वर पर उतनी श्रद्धा नहीं रही। उन्होंने कुछ दुखित होकर राजा से सपने में कहा—राजन्! देवता के वाक्य पर अविश्वास मत करो। तुम्हारी इस भुवन-मोहिनी कन्या से नारी-चरित्र की एक उज्ज्वल दिशा प्रकाशित होगी। इस कन्या के प्रभाव से तुम भविष्यत् में सौ पुत्र पाओगे।
एकाएक अश्वपति की नींद टूट गई। वे शयनागार में एक दिव्य सुगन्धि का अनुभव करके उसे सदा आराध्य सावित्री देवी की ही शुभ आज्ञा समझ पुलकित हुए और उन्होंने तुरन्त रानी से सब बात कह दी।
[३]
राजकुमारी, शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति, दिन-दिन बढ़ने लगी। सावित्री देवी के वर से कन्या होने के कारण राजा अश्वपति ने उसका नाम रक्खा सावित्री। उमर के साथ-साथ सावित्री के रूप की चमक भी बढ़ने लगी। रानी और राजा बेटी की शारीरिक शोभा के साथ भीतर की सुन्दरता, विनय, देवता के प्रति भक्ति, सब जीवों पर भ्रातृभाव और माता-पिता के प्रति अनोखा अनुराग देखकर बहुत प्रसन्न हुए और देवता के वर से पाये हुए उस कन्यारूपी रत्न को बड़े यत्न से पालने लगे।
धीरे-धीरे सावित्री सयानी हुई। उसकी सुघराई जवानी के शीतल स्पर्श से और भी चमक उठी। स्वाभाविक सरल मुख पर लज्जा का चिह्न दिखाई देने लगा। आँखों में लज्जा का भाव देखकर अश्वपति समझ गये कि कन्या ब्याहने योग्य हो गई।
एक दिन तीसरे पहर अश्वपति ने देखा कि राजमहल के अन्दर केलि-कानन में कितने ही फूल खिले हुए हैं; पत्थर के घाटवाले सरो-