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[दूसरा
आदर्श महिला

इधर सावित्री दिन-दिन बढ़ती जाती है। शीघ्र उसका विवाह न करने से ठीक नहीं होगा।

अन्त में राजा ने कहा—अच्छा रानी! मैं एक बात कहता हूँ; बताओ, तुम्हारी क्या राय है। मैं तो बहुत उपाय करके भी सावित्री के योग्य वर न पा सका। अब मेरी इच्छा है कि सावित्री ही को पति खोजने की आज्ञा दूँ। वह अपना पति आप ढूँढ़ ले।

रानी—महाराज! यह असम्भव बात है। जब आप अपनी चेष्टा करके भी सावित्री के योग्य वर नहीं खोज सके तब वह भोली-भाली लड़की इस काम को कैसे कर सकेगी?

राजा—रानी! इसकी चिन्ता मत करो। मैं सावित्री को तीर्थयात्रा के बहाने अपने विश्वस्त मंत्री आदि के साथ भेजूँगा। मेरा विश्वास है कि सावित्री अपने पति को ढूँढ़ लेने में समर्थ होगी।

रानी—महाराज! मैं नारी हूँ। मुझमें इतनी बुद्धि कहाँ कि सब बातों को समझ सकूँ। आपकी जो इच्छा हो, वह कीजिए।

राजा—रानी! तुम इसके लिए कुछ फ़िक्र मत करो। सूर्य को देखकर ही कमलिनी खिलती है। गंगा की धारा महासागर में ही गिरती है। सावित्री जैसी बुद्धिमती और समझदार है उससे उसके ऊपर पति के खोजने का भार देने से बुरा नहीं होगा। रानी! एक बात जान रखना-देवता के वर से मिली हुई मेरी सावित्री कभी अयोग्य वर को पसन्द नहीं करेगी। भविष्यत् उसके लिए उज्ज्वल वेष में बाट देख रहा है। अकल्याण सावित्री के पास नहीं फटकेगा। मेरी बेटी मानवी रूप में देवी है।

राजा और रानी में इस प्रकार की बात हो ही रही थी कि इतने में सावित्री भी वहाँ आ गई। राजा ने आदर से उसे पास बिठाकर कहा—