बेटी! आज मैंने तुमको एक बात कहने के लिए बुलाया है; सुनो। प्रकृति के नियमानुसार यौवन-काल में पुरुष और स्त्री विवाह के पवित्र बन्धन में बँधते हैं। यौवन-काल नर-नारी के भविष्यत् जीवन को साधना का श्रेष्ठ समय है। पुरुष और स्त्री विवाह के बन्धन में बँधकर इस झंझट-भरी पृथ्वी पर साधना के योग्य बल पाते हैं। बेटी! अब तुम सयानी हो गई हो। बिना विलम्ब, तुमको विवाह के पवित्र सूत्र में बँध जाना चाहिए। मैंने योग्य वर ढूँढ़ने के लिए बहुतेरे उपाय किये किन्तु कोई भी राजकुमार तुम्हारे रूप की इस अनुपम ज्योति को नहीं सह सका। पाणिग्रहण के अभिलाषी राजकुमारों ने तुम्हारे मुख की ओर प्रेम-पूर्ण दृष्टि डाली है किन्तु तुम्हारे अनुपम अलौकिक मातृ-भाव ने उनके अभिलषित भाव को बदल दिया है; उससे वे डरते-डरते तुम्हारे स्वर्गीय मातृत्व को प्रणाम करके लौट गये। बेटी! तुम्हारे मुख पर जगत्-माता का स्नेह-पूर्ण माधुर्य झलकता है। मैं इस बुढ़ापे में तुमको 'बेटी बेटी' कहकर अपने को धन्य समझता हूँ।
सावित्री ने कहा—बाबूजी, इस समय मुझे क्या आज्ञा है, मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
राजा ने कहा—मेरी इच्छा है कि तुम स्वयं पति ढूँढ़ने की चेष्टा करो। बेटी! इसमें लजाना मत; कर्त्तव्य कार्य में लजाना अच्छा नहीं। पर्वत से गिरनेवाली नदी आप ही समुद्र से जाकर मिलती है। इस जगत् में प्रेम के समान नित्य वस्तु और कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारे स्वयं पति चुनने में संकोच करने का कोई कारण नहीं देखता।
राजा की बात सुनकर सावित्री बहुत लजा गई। उसके माथे पर पसीना आ गया। रानी ने लड़की के लजाने का भाव देख प्रेम से पास बिठाकर माथे का पसीना पोंछ दिया और कहा—छिः, इसमें शर्म क्या है बेटी! हम जब इतने उपाय करके भी तुम्हारे योग्य वर