पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान]
७१
सावित्री

भरा करके मन्द गति से बह रही है। उसकी मधुर कलकल ध्वनि मुनियों के वेद-गान से गम्भीर हो रही है। मुनियों के कई बेटे फूल चुनकर नदी में स्नान करने जा रहे थे। मुनियों के कुमार व्रत-संयम में भी यौवन के मदस्पर्श से परिहास को पसन्द कर आपस में हँसी-दिल्लगी करते हैं। वे अनेक प्रकार की बातें करते जाते थे। अचानक एक पतिंगा उड़कर एक ऋषिकुमार के बदन पर बैठ गया। यह देखकर ऋषिकुमार ने कहा—"भाई सत्यवान! यह देखो तुम्हारी देह पर पतिंगा बैठा है—तुम्हें दुलहन मिलने में अब देर नहीं।" सत्यवान ने कहा—"जाओ जी, इस घड़ी दिल्लगी रहने दो। नहा-धोकर शीघ्र आश्रम को लौटना है।" हमजोली के ऋषिकुमारों ने सत्यवान को दिल्लगियों के मारे तङ्ग कर डाला। बेचारा सत्यवान आज सहपाठियों के सामने भारी अपराधी बन बैठा है।

स्नान के बाद सन्ध्या-वन्दन आदि करके मुनियों के कुमार आश्रम की ओर चले। सबके मुख पर वही एक बात है। जगत् की जितनी बातें हैं—शास्त्र की जितनी मीमांसा है सब आज सत्यवान की बात से प्रारम्भ हुई। सत्यवान ने ज़रा कुढ़कर कहा—तुम लोग दिल्लगी में ही पड़े रहो। देखते नहीं कि कितना दिन चढ़ गया है। महर्षि यज्ञ पूरा करके कहीं पुकारें न? मैं जाता हूँ—तुम लोग आना।

यह कहकर सत्यवान साथियों को छोड़ आगे बढ़ गया।

यह बड़ी कठिन पुकार है। जिस पुकार से जगत् चलता है, विधाता की इतनी बड़ी सृष्टि जिस पुकार को मानती है उसी पुकार ने आज सत्यवान को बाल सखाओं से अलग कर दिया। सत्यवान क्या सचमुच आज अकेला है? नहीं, वह अकेला नहीं है; जीवन के मार्ग में जो शक्ति है, कर्म की लड़ाई में जो सफलता है और