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आख्यान]
७३
सावित्री

पर हाथ रखकर कहा—नहीं भाई! कुछ नहीं है। चलो, महर्षि के पास शीघ्र चलें।

सावित्री के मन के भाव को ताड़कर दाई बोली—"राजकुमारी! हम लोग बातें करते-करते बहुत दूर निकल आईं; मंत्रीजी हम लोगों को ढूँढ़ते होंगे।" सावित्री ने कहा—मैं तो बहुत थक गई। मैं ज़रा आराम करना चाहती हूँ।

सखियों से घिरकर आती हुई राजकुमारी रास्ते में न जाने कितनी बातें सोचने लगी। उसकी मृदु मुसकान और बेरोक बातचीत कुछ सँभल गई। सखियों की बात का उत्तर देना इस समय उसकी शक्ति से बाहर था।

आते-आते एक सखी ने कहा—"राजकुमारी! यह देखो काले मेघों की क़तार के समान पहाड़ से सटे हुए पत्थर कितने रुखड़े हैं। उनमें कोमलता तो नाम लेने के लिए भी नहीं है।" सावित्री बोल उठी—अहा! क्या ही सुन्दर है।

सावित्री के मुँह से ऐसे असम्भव उत्तर को सुनकर सखी बोली—"सखी! यह कैसा उल्टा-पल्टा उत्तर देती हो? रुखड़े पत्थर में तुमने सुन्दरता कहाँ पाई?" सावित्री ने कहा—"तुमने क्या कहा? मैंने ठीक-ठीक सुना नहीं।" सखी ने सावित्री की इस चिन्ता का कारण समझकर हँसते-हँसते कहा—"यह देखो मंत्रीजी आते हैं।" दाई के इशारे से दिल्लगी की बातें बन्द हुईं।

मंत्री ने आकर प्रेम से कहा—"यह आश्रम बड़ा सुन्दर है। मैं आश्रम में मुनियों का वास स्थान देख आया। अहा! कैसा शान्त स्थान है!" सावित्री ने कहा—मंत्रिवर! मेरी इच्छा है कि मैं एक बार मुनियों के और उनकी पत्नियों के चरणों के दर्शन कर लूँ।

मंत्री ने कहा—"राजकुमारी! चलिए, आज इस तपोवन में हम