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[दूसरा
आदर्श महिला

लोग मेहमान हों।" सखियों सहित सावित्री तपोवन और मुनियों को देखने के लिए बहुत अधीर थी। इससे जल्दी-जल्दी चलने लगी। दाई और मंत्री ज़रा पिछड़ गये।

"मंत्रीजी! हम लोगों की यात्रा सफल हो गई। हम लोग जिस काम के लिए राजधानी से चले थे, वह पूरा हो गया। सावित्री को योग्य वर मिल गया।" कहकर, मंत्री को दाई रास्ते की सब बातें संक्षेप में सुना गई।

मंत्री ने कहा—"अगर राजकुमारी का किसी ऋषिकुमार पर प्रेम हुआ हो तो मुझे उसका परिचय ले लेना होगा।" दाई ने आगे जाते हुए दोनों ऋषिकुमारों को उँगली से दिखाकर कहा—"वह जो उन्नत शरीर का सुकुमार ऋषिपुत्र दाईं ओर दिखाई देता है, वही भाग्यवान् सावित्री के हृदय-राज्य का देवता है।" मंत्री ने कहा—हम लोगों को भी उधर ही चलना होगा।

बिना विलम्ब उन्होंने तपोवन में जाकर योगासन पर बैठे हुए अन्ध-मुनि और मुनि की पत्नी के चरण छुए। मंत्री ने मुनि से कहा—मद्रराज अश्वपति की बेटी सावित्री का प्रणाम स्वीकार कीजिए।

अपने आश्रम में राज-कन्या सावित्री का आना सुनकर उन्होंने अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए राजकुमारी को आशीर्वाद दिया।

अन्ध-मुनि ने यथाविधि क्षेम-कुशल आदि पूछा, फिर सत्यवान से कहा—बेटा! आज हम लोगों के आश्रम में राजकुमारी, राजमंत्री और राजकुमारी की दाई तथा सखियाँ अतिथि हैं। बेटा! सावधान रहना, इन लोगों के सत्कार में कुछ त्रुटि न हो।

रास्ते में जिस राजकुमारी को देखा था उसी को अपने आश्रम में देखकर सत्यवान बड़े उत्साह से उन लोगों की सेवा करने लगा।

मद्र-नरेश की कन्या का तपोवन में आना सुनकर आश्रम-वासी