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[ दूसरा
आदर्श महिला

राजकुमारी से ऐसा मुश्किल काम कैसे करावेगी? यह राजकुमारी ही नारीत्व और मातृत्व का उज्ज्वल आदर्श बनेगी—आज इस बालिका की बात ही उनकी आशारूपी लता की जड़ में कुल्हाड़ी का या अमृत की धार का काम करेगी, इत्यादि सोचकर देवर्षि का मन ऊबने लगा।

अश्वपति ने दुखी होकर कहा—मैं जान-बूझकर ऐसे थोड़ी उम्रवाले पुरुष के हाथ अपनी प्राण से प्यारी लड़की को नहीं सौंप सकता।

दोनों ओर संकट है! एक ओर पिता की आज्ञा को उल्लङ्घन करना और दूसरी ओर सतीत्व का त्याग! इस दुहरी चिन्ता से सावित्री विकल हो गई। स्त्री को सतीत्व के त्याग से बढ़कर असम्भव काम और कुछ नहीं है, यह सोचकर सावित्री बड़ी मुश्किल में पड़ी।

सावित्री ने कहा—बाबूजी! मैंने आपकी बात को कभी नहीं टाला, मैंने आपके सामने कभी अपनी अलग राय प्रकट नहीं की। किन्तु एक बड़े कर्त्तव्य-ज्ञान के चक्कर में पड़कर आज आपसे निवेदन करना पड़ता है कि आप जो कहते हैं उसे मैं मंजूर नहीं कर सकती। पिताजी! आपने ही मुझसे कहा है कि 'स्त्री का चाल-चलन तेज़ छुरी की धार पर है। एक ही को भजनेवाली स्त्री गङ्गा की धार के समान पवित्र है। हर एक नारी जगन्माता की प्रेम-सुधा में सनी भोली-भाली जननी है, संसार में नारी ही भगवान् की बढ़िया सामग्री है।' पिताजी! मैं क्या आप सरीखे आदर्श देवता की लड़की होकर, पतिव्रताओं में श्रेष्ठ मालवी देवी के गर्भ से पैदा होकर, नारी के ऊँचे अधिकार से ठगी जाऊँगी? क्या आप प्रेम की दृष्टि से अन्धे होकर मेरा इस प्रकार नीचे गिरना देख सकेंगे?