पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१०५

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"क्यों अब तो यात्रा करने से पेट भर गया ना? अब भी समय है। घर लौट चलें तो कैसा?"

"हाँ! अब तो मैं घबड़ा उठी। क्या आज की सी दुर्दशा हर एक तीर्थ पर होगी? यदि ऐसा ही है तो लौट चलना ही अच्छा है।"

"ऐसी ही! इससे भी बढ़कर! यहाँ तो केवल इतने ही मैं पिंड छूट गया किंतु और जगह ठग मिलेंगे, उठाईगीरे मिलेंगे, जेबतराश मिलेंगे। खून हो पड़ता है। व्यभिचार हो सकता है। भेड़ की खाल में भेड़िये बनकर साधु मिलते हैं और ऐसे ही लोगों की, नहीं नहीं! नराधमों की, राक्षसों की, बदौलत जो तीर्थ का एक दिन भगवान के दर्शन होने के लिये खुला हुआ मार्ग था, जहाँ ऋषि महर्षि इकट्ठे होकर उपदेश से लोगों का उद्धार करते थे, जो मोक्ष प्राप्ति का एक मुख्य साधन था वह अब बदमाशों का, हाय मैं अपनी जबान से क्या कहूँ?, एक अड्डा बनता जाता है।"

"तब तो इसमें तीर्थों का दोष नहीं है, मंदिर वेही, क्षेत्र वेही हैं और धाम वेही किंतु उस समय के से मनुष्य नहीं हैं। दुनिया झुकती है झुकानेवाला चाहिए। यदि आप उद्योग करेंगे तो शायद लोग कुछ कुछ ठिकाने आ सकते हैं।"

"केवल मेरे ही प्रयत्न से क्या हो सकता है? समुद्र में एक बूँद! परंतु फिर भी लोगों को असली स्वरूप दिखला देना चाहिए। इसीलिये यह यात्रा है।"