पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१०८

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"वह विवाह नहीं मेरी समझ में तो व्यभिचार है। जो हिंदू समाज में विधवा विवाह अथवा तलाक का प्रचार करना चाहते हैं वे दंपति के प्रेम पर, जन्म जन्मांतर के साथ पर, पवित्र सतीत्व पर और यों हिंदू धर्म पर वज्र मारना चाहते हैं। यदि भगवान न करें, ऐसी प्रथा चल पड़े तो अनेक नारियाँ दुसरा खसम करने के लिये अपने पति को जहर दे देंगी। पति पत्नी के सैकड़ों मुकदमे अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगेंगे और आज कल का हिंदू समाज, हिंदू समाज न रहेगा। पति पत्नी का अलौकिक प्रेम नष्ट भ्रष्ट हो जायगा। इस गए बीते जमाने में भी हिंदू समाज ही एक ऐसा समाज है जिस में हज़ार रोकने पर भी ऐसी सतियाँ निकलतीं हैं जो पति का परलोक होते ही दूसरे के पलंग पर चढ़ने के बदले प्राणनाथ की चिता पर जल मरने में अपना गौरव समझती हैं और यदि समय उन्हें रोके तो मेरी भुआ की तरह अजीवन विधवा धर्म का पालन करता हैं। लाख तलाक देने वाली और करोड़ दूसरा खसम करने वाली से ऐसी एक ही अच्छी है। ऐसे ही रमणी रत्नों से समाज का मुख उज्वल है।"

"हाँ! सत्य है! यथार्थ है! वेशक ऐसा ही चाहिए! परंतु आज तो बड़ा भारी लेकचर फटकार डाला। वाह पंडित जी! शाबाश!"

"पंडित जी नहीं! पंडितायिन! पर इस शाबाशी का इनाम? कुछ इनाम भी तो मिलना चाहिए!!"