पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/११६

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जाने पर भी पति नारायण के चरण कमलों को छोड़ कर जाने का हियाव ही न करती। मैके के कुसंस्कार से उसके मन में ऐसा कुविचार उत्पन्न हुना और ऐसे समय फूँक कर आग सुलग देने का काम उसकी पड़ौसिन ने किया। उसका नाम मथुरा था, किंतु इस समय पंडित जी के कुटुंब में कलह का दावानल प्रज्वलित करने के लिए वह मंथरा बन गई। वह लाख क्रोधी, सिर चढ़ी और ढीठ होने पर भी एक भले घर की बेटी और दूसरे भले घर की बहू थी। यदि मथुरा―मंथरा न मिलती तो शायद घर की चौखट लाँघने का उसे साहस ही न होता। कुलवधुएँ कहा करती हैं कि "जो चौखट पार लो दुनियाँ पार।" उनका कहना यथार्थ भी है। जब तक लड़ाई झगड़ा, बुराई भलाई घर की घर में रहे तब तक गृहस्थी के बड़े से बड़े उलझन के मसले सहज में, काल पाकर आप सुलझ जाते हैं। "देहली पर्वत है"। किसी काम के लिये घर की देहली को लाँध कर बाहर निकलना भी मुशकिल्ले और निकल जाय तो वापिस पाना भी कठिन।

क्रोध के भूत ने सुखदा को ऐसी बातें सोचने का अवसर ही न दिया और इस समय मथुरा की सलाह से वह "पहले हो कडुवी करेली और फिर नीम चढ़ी "बन गई। मथुरा ने उसे रंग पर चढ़ाते चढ़ाते यहाँ तक कह डाला कि―

"एक बार तू करके तो देखा निपूता झख मारता तुझे मनाने न आवे तो मेरा नाम! न आवेगा तो आप ही भूखों