पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१४८

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पाहन होहुँ वही गिरि को
जो कियो व्रज छत्र पुरंदर धारन।
जो खग होऊँ बसेरो करौं
वाहि कालिंदि कूल कदंब की डारन।*"

"बेशक ठोक है! यही चाहिए परंतु नाथ मेरे ओछे चित्त में एक बड़ा भारी संदेह है। एक, नहीं दो? दासी का अपराध क्षमा करना! बहुत दिनों से पूछने की इच्छा थी। संदेह यही कि चीरहरण लीला में गोपियों को नंगी देख कर श्रीकृष्ण ने क्यों उनकी लज्जा लूटी और उनका गोपिकाओं के साथ विहार, व्यभिचार क्यों नहीं कहलाता। मैं तर्क करके नहीं पूछती। तर्क श्रद्धा की जड़ नष्ट कर देता है और श्रद्धा चली जाने से मनुष्य का सर्वनाश है।"

"हाँ! मैं जानता हूँ कि तू श्रद्धावती है और धर्म पर श्रद्धा रखकर संदेह मिटा खेना अच्छा ही है परंतु तेरे प्रश्न बहुत ही बड़े हैं, थोड़ी सी देर में उत्तर देना और सो भी ऐसा जिस से तेरा पूरा संतोष हो जाय जरा टेढ़ी खीर है। यह भगवान की लीला है। इस का मर्म बहुत गंभीर है। जिन लोगों की बुद्धि बहुत साधारण है वे उस धर्म को न समझ कर ही था तो इस बात को ही गप्प, पोपलीला बत- लाते हैं अथवा श्रीकृष्ण भगवान को व्यभिचारी बतलाकर हिंदू समाज की मूर्खता पर तालियाँ पीटते हैं। यह उनकी


  • रागरत्नाकर से।