"हुजूर, बच्चों को जेवर पहनाना उन्हें मौत के मुँह में देना है।"
"वेशक! क्या तुम्हारे भी इजहार हो गए?"
"हाँ सरकार! मैं लिखवा आया कि मैं इतना अलवत्ता जानता हूँ कि जब वह मेरे पास पिछली बार आया तब उसके कपड़ों पर लाल लाल दाग जरूर थे। परंतु मेरा उसपर भरोसा था। मैं उसे महात्मा समझता था इसलिये मैंने उस पर संदेह नहीं किया।"
"और तो खैर! ठीक ही है मगर तुमने इतना नाहक लिखवाया! तुम को जरूरत क्या थी?"
"तो क्या सरकार मैं झूठ बोलूँ? इतने वर्ष ही न बोला तो अब तो मेरी लड़कियाँ भी मरघट में जा पहुँची। मैंने कुछ किया ही नहीं तो डरूं भी क्यों? साँच का सदा बोल बाला है।"
"शाबाश! ऐसा ही चाहिए मगर क्यों जी उस साधु का अब पता नहीं है?"
"क्या मालूम रमता राम था।"
"तुम्हारे खयाल से क्या उसी ने मारा?"
"परमेश्वर जाने साहब! मेरी थैली ले जाने की बात का जब लालदागों से मिलान किया जाता है तब तो संदेह ऐसा ही होता है!"
"तब क्या वह लालची था?"