पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१७

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करण हा दर्पण है" तब इनके चेहरे मोहरे से सज्जनता के सिवाय दुर्जनना का लेश भी नहीं पाया जाता। यदि और कुछ भी न हो तो इन दोनों में एक को लज्जा ने अवश्य घेर रक्खा है। क्योंकि वह बहुत ही चोकन्नी है, पशु पक्षियों की आने जाने से कहीं पर कुछ पत्ता खटकने की आहत आते ही अपने प्राण प्यारे की मधुर ध्वनि सुनकर अपने अंतःकरण को तृप्त करने के बदले वह अपने कान के हरकारों को वहीं भेजकर तुरंत ही लज्जा के मारे सिकुड़ती हुई लोचती है कि कहीं हमारी बात को कोई सुनता तो नहीं है। इस से शायद कोई यह समझ बैठे कि यह रमणी जारिणी है और पराये प्यारे को अपना प्यारा बनाने के कारण ही शर्माती है। ऐसा समझाने में समझनेवाले का कोई दोष भी नहीं है क्योंकि आज कल व्यभिचार का जमाना है, किंतु नहीं। यह जारिणी नहीं और उसका प्रियतम ही उसका सच्चा हृदयेश्वर है, उस का स्वामी है और वही स्वामी है जिसने पांच पंचों में बैठ कर सूर्य चंद्रमा की साक्षी से, ध्रुव तारे के दर्शन करके, अपने अटल संयोग की प्रतिज्ञा के साथ एक के दुःख में दूसरे के दुखी होने और एक के खुख से दूसरे के सुजी होने का वादा करके, जन्म जन्मांतर तक मरने के बाद भी साथ न छोड़ने के प्रण के साथ पाणिग्रहण किया था। अब ऐसा ही है तब इतनी शंका क्यों? दंपति के एकांतस्थल मैं प्रेमसंभाषण के समय इतनी लज्जा का क्या काम? किंतु हां! काम है और जब पर पुरुष