पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/१९५

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कह गया जिसे सुनकर वह एक बार खूब खिलखिला कर हँस पड़ी, फिर घबड़ाई, कांप उठी, रोई और डर के मारे पसीने में सराबोर हो गई। चौथे स्टेशन पर गाड़ी ठहरते ही जब फिर कांतानाथ ने इसे आकर सँभाला तो उसकी बहुत बुरी दशा थी। रोने के मारे इसकी हिचकियाँ बँध रहीं थीं। यह रो धोकर देवर को अपना दुःख सुनाना चाहती थी किंतु इसके मुँह से पूरा एक शब्द भी नहीं निकलने पाता था। इसका कलेजा जोर जोर धड़क रहा था और आँसुओं से, पसीने से इसकी अँगिया, इसकी साड़ी भीग कर तर हो रही थी। इसने जब बहुतेरा जोर मारा तो "भैया! हुट् मुझे! हुट् बचाओ! हुट्!" कहती हुई देवर के कंधे से सिर लगा कर मूर्च्छित हो गई। अच्छा हुआ जो कांतानाथ ने इसे सँभाल लिया नहीं तो किवाड़ से टकरा कर माथा फट जाता। खैर "हैं! हैं!! भाभी इतनी घबड़ाती क्यों हो? अब मैं आगया! अब तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।" कह कर उसने बहुतेरा इसे प्रबोधा और गोपीबल्भ से खबर पाकर पंडितजी भी एक ही मिनट में आ पहुँचे। आँख खुलते ही "अब मेरे जी में जी आया।" कहती हुई यह बाहर निकली और एक बार शर्म लाज को ताक में रखकर पति से चिपट गई। अब इसे पूरा होश आया तो यह शर्माई और लंबा घूँघट निकाल कर उनके साथ, उन्हीं के पास मर्दानी गाड़ी में जा बैठी।