पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

प्रकरण―१९

प्रयागी पंडे।

तीर्थराज प्रयाग के स्टेशन से बाहर होते ही कोई पचास चालीस लट्ठधारियों ने इन लोगों को घेर लिया। उनके हाथों में कान के बराबर ऊँची लाठियाँ, बगल में बटुवा, सिर पर सफेद टोपियाँ, शरीर में सफेद कुर्ते और कंधे पर एक एक दुपट्टे के सिवाय यदि और कुछ हो भी तो क्या हो? ललाट पर श्वेत चंदन के तिलक और उसमें भी विशेष कर मछलियों के से आकार। स्टेशन पर वहाँ के पंडे स्वयं नहीं आते हैं। आते हैं या तो उनके नौकर अथवा वे लोग जिनका पेशा ही यह है कि यजमानों को घेर धार कर गुरुओं के मकानों पर पहुँचा देना। इन लोगों की आखें विजया महारानी ने लाल कर रक्खी हैं। क्योंकि यह ऐसे ही जीवों का सिद्धांत है कि- "भंग कहै सो बावरो और विजया कहै सो कूर, याको नाम कमलापती रहे नैन भरपूर।" इनमें से जिन्हें विजया की लाली कुछ फीकी जँचती है वे गाँजा पीकर लाली जमाते हैं क्योंकि फीकी जो लाली नहीं और वह लाली ही क्या जो जरा देर में उड़ जावे।

इस यात्रापार्टी को आज भूख के मारे आँतें बैठी जा रही हैं, प्यास से गला सूखा जा रहा है और इस तरह सब