पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८

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श्रीहरिः।
कस्यचित्किमपि नो हरणीयं मर्म्मवाक्यमपि नोऽच्चरणीयम्
श्रीपतेः पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवनिधिं तरणीयम्।

भूमिका।

भारतवर्ष के प्राचीन विद्वान् ग्रंथारंभ में मंगलाचरण किया करते थे, कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिये इष्टदेव की प्रार्थना करते थे और पुस्तकरचना में अपनी अयोग्यता दिखला कर शिष्ट समुदाय से अपनी धृष्टता पर क्षमा माँगते थे। अब वे बातें भूमिका में बदल गई। अब थोड़ों को छोड़कर न कहीं यह मंगलाचरण है, न वह वंदना है और न वह क्षमाप्रार्थना। अब है प्रायः देशोन्नति की डींगें, परोपकार का आभास और आत्मश्लाघा की झलक, किंतु मुझ जैसा पाँचवाँ सवार न 'मंगलाचरण' करने में समर्थ है और न मुझ में भूमिका लिखने ही की योग्यता है। परंतु आज कल के सभ्य समाज में जब भूमिका लिखने का एक तरह का फैशन है और जब इस बिना पोथी अधूरी समझी आती है तब इस विषय में थोड़ा बहुत लिखना ही पड़ेगा।

जब बुरी और भली जैसी कुछ है—यह पोथी प्यारे पाठक