पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८६

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और तब ही से अपनी मथनी से पेट के नीचे वह धोती की एक दो गाँठें देने लगा।

जैसे डील डौल में बंदर चौबे कुंभकरण होने का दावा करता था वैसे ही खाने में भी बड़ा बहादुर था। तीन चार सेर लडुआ, पाँच छः सेर खीर और ऊपर से सेर डेढ़ सेर जलेबी खाजाना इसके लिये कोई बड़ी बात न थी। क्योंकि "चूरन की जगह होती तो चार लडुआ ही क्यो न खाते?" यह ऐसे ही लोगो का सिद्धांत था। जैसा इसका डील डौल था, जैसी इसकी खुराक थी वैसी ही इसमें ताकत भी थी। एक सांस में हजार दो हजार डंड खैंच लेना इसके लिये कोई बड़ी बात नहीं थी। पहले पहले इसने दो चार नामी नामी पहलवानों को कुस्ती में मारा भी था परंतु हिम्मत के नाम पर इसकी नानी मर जाती थी। जो दिन में पाँच पँचों के सामने पहलवानी की बड़ी बड़ी डीगँ हाँकता वह घर में पहुँचते ही चौबायिन के आगे गैया सा गरीब बन जाता था। वह जैसे नचाती वैसे ही नाचता और इस तरह उसका हुक्मी बंदा बना रहता था। हिंदुओं के घर में जितनी कुत्ते की कदर है उतनी ही उसकी थी। लुगाइयाँ यहाँ तक कहती थीं कि चौबा- यिन ने उस पर जादू कर दिया है।

अस्तु! कुछ भी हो। पंडित प्रियानाथ जी ने जिस समय इसके मकान के आगे अपना ताँगा खड़ा किया इसकी भंग छन कर तैयार हो चुकी थी। इसने साफी धोकर भंग के लोटे