पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८५

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रखता था। सिर पर एक दुपल्ली टोपी, कंधे पर एक अँगोछा और कमर में धोती रखने के सिवाय चाहे कैसा भी जाड़ा क्यों न पड़े मिरजई पहनने की कसम और जेठ की दुपहरी में धरती चाहे तत्ते तवे की सी गर्म क्यों न जल उठे जूता पहनने का काम ही क्या? वह जब कभी बहुत गुस्से में आता तो अपनी चौबायिन को मारने के लिये अपना हाथ अपने पैर से जूता निकालने को नीचे की ओर दौड़ाता अवश्य परंतु जब श्रीमती―"हाँ! हाँ!! मारो! मारो!! भगवान ने दी हो तो मारो। जन्म को नंगो निगोड़ा जूता मारने चलो है। कभी बाप जमारे भी जूती पहनी है जो मारने के लिये हाथ फैलावै है। एक बेर जूती पहन तो सही। नसीब में लिखी हो तो जूती पहन।" कहती हुई हँस कर तालियाँ बजा देती और बंदर चौबे भी इस बात से प्रसन्न होकर मुँह बिचकाता हुआ वहाँ से नौ दो ग्यारह होता। मथुरा के दिल्लगीबाज लोग लुगाइयों को बंदर चौबे की हँसी करते देख कर इसकी धोती भी कभी कभी उनकी हँसी में गहरी हँसी बढ़ाने के लिये उसकी कमर का अड्डा छोड़ भागने का प्रयत्न करती रहती थी। प्रयत्न क्या? कभी कभी भाग भी निकलती थी किंतु सरे बाजार इस तरह इसके कई बार दिगंबर हो जाने से जब लोगों ने इसका नाम ही नंगा रख लिया, "नंगा नंगा" कह कर बालक इसे चिढ़ाने लगे यहाँ तक कि इसकी धोती खैंच कर भागने लगे तब इसकी ठठोल धोती को शर्म आई