पृष्ठ:आदर्श हिंदू १.pdf/८९

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प्रकरण-९

निरक्षर पंडा।

पंडित जी अपना और बूढ़े भगवान दास ने अपना सामान ठिकाने रक्खा। शरीर कृत्य से निवृत्त होकर सब ही विश्रांत घाट पर स्नान करने गए। गहरी दक्षिणा पाने की लालच से बंदर चौबे भी साथ। अच्छा हुआ जो चौबायिन की सलाह से ये लोग कपड़े, जेवर और जूते उतार कर अपने अपने डेरे में ही रख गए। इन्होंने कहा भी था कि "यहाँ छोड़ देने की क्या आवश्यकता है? भोला साथ है ही। वह सब की रखवाली कर लेगा।" परंतु चौबायिन ने बड़ी जिह की उसने स्पष्ट कह दिया कि "भोला कहा? भोला को बापहू सुरग सों उतर आवैं तो बंदर के आगे वाकी एक हू न चलने पावैगी। ये बंदर नहीं। निपूते बलाय हैं। पंडित जी को शायद अपनी उमर भर में नंगे पैरों, नंगे शरीर और नंगे सिर, केवल एक धोती पहने घर से बाहर निकलने का काम नहीं पड़ा था। इस लिये उन्होंने अपनी नाक भौं भी बहुत सिकोड़ी। वे झुंझलाप, शरमाए और इन्होंने आनाकानी भी कम न की। दंपति में परस्पर आँखों ही आँखों में हँसी मजाक भी कम न हुआ। वह दिल्लगी दिल से आँखों पर और आँखों से दौड़ कर होठों तक भी आ टकराई किंतु होठों के फाटक ने जब रास्ता न दिया तब भाग कर